Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

Previous | Next

Page 208
________________ १८८] पउमुत्तरस्स पुरओ हरिवेगकहियं देव-गुरु-धम्मसरूवं । १४९ एवमुदयं पि मुत्तिं हरिणो भणिऊण पाय-गुयधुवणे । विणिोइंता तुन्भे कह भो ! न विरुद्धववहारा ? ॥१६० 'एएण विणा न चलइ भुवणं' ति जलं भणेह जइ देवं । एत्थ वि अइप्पसंगो लक्खिज्जइ पायडो चेव ॥१६१ भिच्चेहिं विणा न निवो सव्वे ते तस्स हुंति किं देवा ?। कोलिय-कुलाल-चम्मयरया वि लोयस्स कन्जयरा ॥ वैच्छीपुत्तेण विणा सुज्झइ न हि सूययं दियाणं पि । अंगं व जलेण विणा ता भन्नउ सो वि किं देवो ? ॥१६३।। अह एयनिमित्तं चिय सिद्धी एयाण नीर-दहणाण । हुंतु उवगरणभूया देवत्तपगप्पणा दुट्ठा ॥ १६४ ।। परिकप्पिऊण राया कोयरकम्मे निउंजए न जओ । देवो त्ति भणिय न खमं निओइउं असुइअवणयणे ॥१६५ इय देववियारम्मि वि पुन्चऽवरविरुद्धया धुवं अत्थि । ता कह बिरालरयणे विरोहपरिभावणं कुणह ? ।।१६६।। सचहा जह मयणारि गिरिसं गोरी-गंगारयं पि सहहह । मूसयखइयं पि इमं तह मूसयमूरगं मुणह" ॥ १६७ ॥ इय अक्खलंतवयणं सावटुंभम्मि जपिरे खयरे । लेप्पमया इव विप्पा निरुत्तरा तत्थ संवुत्ता ॥ १६८ ॥ 10 राया वि भट्टधम्म सव्वं अवियारसारववहारं । निउणं निरूवयंतो जाओ मंदायरो तम्मि ॥ १६९ ॥ पउमुत्तरो विचिंतइ 'न एस मज्जारविक्कई नूणं । दिधपुरिसो खु कोई सकोउगो भमइ इच्छाए ॥ १७० ॥ ता पुच्छामि इमं चिय धम्मसरूवं जहट्ठियं इन्हिं । दीसंति जेण नऽने दंसणिणो एत्थ नयरम्मि' ॥ १७१॥ भाणी य तओ खयरं 'भो भो ! अइपंडिओ व्ब पडिहासि । ता कहसु केत्तियाणं धम्माणं मुणसि परमत्थं ?॥१७२ कम्मि कमले व विमले लीणो मणमहुयरो इमो तुज्झ । देवे गुरुम्मि धम्मे व ? ता फुडं कहसु सब्भावं' ॥१७३।। 15 आह तओ हरिवेगो 'जाणामि असेससासणसरुवं । नवरमवियारसारं एक जिणसासणं मोत्तुं ॥ १७४॥ जीवदयमलियविरई अचोरिया बंभचेर संतोस । धम्म भणंति सव्वे, न य किरियाए तह करिति ।। १७५ ॥ असि-मसि-किसिवाणिज्जा घर-परिणिपरिग्गहग्गहगहेण । विनडिजति वराया दंसणिणो के वि होऊण ॥१७६॥ जल-जलणारंभाओ कीड-पयंगाइए विविहजीवे । लुपंता के वि मुहा कुणंति तब-बंभचेराई ।। १७७ ॥ कंदे मूल-फलाई भुजंता तवविसेससुसियंगा। बुझंति के वि बाला तरूण नो चेव जीवत्तं ॥ १७८॥ 20 घोसंति दयाधम्म, धम्मकए पसुगणं पि होमंति । वेयस्स दिति होहं पगाममूढावरे पावा ॥ १७९ ॥ केत्तियमेत्तं वा हं परदोसुच्चारणं किर करिस्सं ? । को गणइ लकुडाई कडंगरुकुरुडियावडिओ? ॥ १८० ॥ जिणसासणं तु एकं निदोस निदिसामि पुणरुत्तं । कस-ताव-छेयसुद्धं कणयं व विसिट्ठजणइटें ।। १८१॥ गयराग-दोस-मोहो अकलंको जत्थ जिणवरो देवो । असुर-नरा-ऽमरनयपायपंकओ तह निरासंगो ॥ १८२ ॥ अणुवकयपराणुग्गहपरायणो सत्तु-मित्तसमचित्तो । पहरण-रमणि-परिग्गहपरम्मुहो निभओ निरओ ॥ १८३॥ 25 गंधव्य-नट्ट-अट्टहासकीलाविलासरसविमुहो । निम्मलनाणगुणड्ढो निरंजणो निट्ठियट्ठो य ॥ १८४ ॥ कस्सइ अदिनसावो अछलन्नेसो जिणो जहिं देवो । मोत्तण जिणमयं तं अन्नत्थ मणो न मे रमइ ॥ १८५ ॥ तह जीवदयासारो अणलियवाई अदत्तपरिहारी । बभन्बयपव्ययभारधारओ दुरियारंभो ॥ १८६ ॥ मण-वयण-कायगुत्तो खंतो दंतिदिओ पसमरसिओ। धम्मोवएसदाया परोक्यारी गुरू जत्थ ॥ १८७ ॥ सन्भूयवत्थुपरमत्थसाहयं साहयं सिवपयस्स । तं जिणमयं पमोत्तूण मम मणो रमइ नऽनत्थ' ॥ १८८॥ 30 एवं च जिणसासणगुणगणुकित्तणं सुणतो विसुद्धपुनाणुभावेण परमं पमोयरसमणुहविउं पवत्तो पउमुत्तरो। पुणो वि भणियं हरिवेगेण १ वित्थीउत्तेण जे• विना ॥ २ निउंजप खं१ ॥ ३ रुक्कुरिडिया' जे विना ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323