Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 196
________________ २५१] ईसरमुणिदेसणापडिबुद्धसूरसेण-मुत्तावलीणं पव्वज्जागहणं देवलोगगमणं च । १३७ एयं चिय मंतीहि वि भणियं पहुसमणुकूलवित्तीहिं । पुम्नब्भहियाण मणोरहेसु को वा कुणइ विग्यं ? ॥२४५॥ तो राइणा पसत्थमुहुत्ते अभिसित्तो रजे चंदसेणकुमारो, जाणाविओ कुलनीईओ, भलाविओ मंतीणं, भणिओ य 'वच्छ ! रज्जं नाम निरवराहं काराहरं, अरज्जुयं बंधणं, अनायगं पारवस्सं, अमज्जा मउप्पत्ती, सचक्खुयं अंधत्तं, ता न कायव्वा एत्थ परमत्थबुद्धी, न मोत्तव्यो धम्माणुराओ, न लंघियच्या कुलहिई, नाइक्कमणीओ नीइमग्गो, न पीडियव्यो सिट्ठलोगो, नावमाणियव्याओ पयईओ, अणुवत्तियव्यो मुभिच्चो, मनियबो गुरुजणो, 5 होयव्वं मंतिवयणवत्तिणा, जइयव्वं जसोवज्जणे'त्ति । एवं च रज्जसुत्थं काऊण कारिया जिणमंदिरेसु अट्टाहियामहिमा, पूइओ समणसंघो, पवत्तियमवारियसत्तं [सत्तं ।। तओ पसत्यवासरे चंदसेणोवढवियमहानिक्खमणाभिसेओ सेयाहयवत्था-ऽऽहरण-विलेवण-मुमणमालालंकियकायलट्ठी पुरिससहस्साहिणि सिषियमारूढो हय-गय-रहारूढनर-नरिंदाणुगम्ममाणमग्गो गंभीरतूरनिग्योसबहिरियनहंगणो, धुव्वंतो चारणगणेण, पसंसिज्जमाणो धम्मियजणेण संपत्तो गुरुपायमूलं । कयवंदणाइपडिवत्ती 10 अणेगरायसहिओ पव्वइओ विहिणा सूरसेणनराहियो । तयणु अणेगराईसर-सत्थवाहाइसुंदरीविंदसमन्निया मुत्तावली वि पत्ता चंदाभाए पवत्तिणीए सीसिणीभावं । गुरुपयसेवाकरणुज्जएहिं निचुज्जएहिं सज्झाए । एकारस अंगाई तेहिं अहीयाइं दोहिं पि ॥ २४६ ॥ चरण-करणेहिं अप्पा विभाविओ निरइयारभावेहिं । तिव्वतवतावतवियं विसोहियं मुटु मणकणयं ॥ २४७ ॥ किं बहुणा? 15 छिन्नो मिच्छत्तसालो जिणमयपयडा तोडिया दो वि बंधा, दो दुट्ठा झाणचोरा चरणधणहरा निज्जिया दुज्जया वि। सल्लाणं संजमंगे सुयकवयजुए मुटु भग्गो पवेसो, उच्छूढा तेहिं दूरं छलगहणमणा गारवा रक्खस व्व ।।२४८॥ दंडा चंडभड व्व खंडियमया सन्ना विसन्ना इच, कोहाई चिरवेरिणो वि विहिणा मंदप्पयावा कया। माइप्पं कुसुमाउहस्स निहयं लुत्ता पमायाइणो, आसन्नीकयमेव दोहिं वि तओ नेव्वाणठाणं परं ॥ २४९ ॥ एवं चरित्ता विमलं चरित्तं, संलेहणं मासियमायरित्ता । ते दो वि जाया अहमिददेवा, गेवेजगे हेट्ठिमहेट्ठिमम्मि ।। २५० ।। भुंजिस ते तत्थ सुहं महंत, विसुद्धचारित्तगुणप्पहावा । अकामकामा कमणीयकाया, देसूणतेवीसइं सागराइं ॥ २५१ ॥ इय पुहइचंदचरिए सूरसेणमहारिसिचरियं छर्ट भवग्गहणं समत्तं ।। [ ग्रन्थाग्रम्-४२२] १यव्वं धम्मोवज्जणे जे. ।। २ वाहिणी जे. खं१, वाहिणी खं२ ॥ पु०१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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