Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 164
________________ ४६ ] पुण्णचंद - पुप्फसुंदरीणं जम्मो पत्तजोवणागमुजाणे मेलावओ य । १०५ गामिणी सामिणी, पेच्छामो तात्र उज्जाणमज्झभायं, विस्समामो दक्खामंडवेसु, कीलामो कयलीवणेसु, पेच्छामो बउल-तिलयाइपायवलच्छि पि' ति । तओ अलंघणीययाए सहीयणस्स दक्खिन्नपान्नआ य पडिवनमेईए । कमेण पत्ताओ माहवीलयामंडवं, पारद्धो तत्थ वीणाविणोओ । एत्थंतरे सलीललोललोयणक्खेव क्खित्तमित्तचकवालेण परिगओ, गओ इव करुक्खेवलीलामणहरो, हरो इव पभूयभूइभूसियंगो, सियंगो विहंगो इव मणोहारिगमणो, ईसिह सियपया सियदंतपंति कंतिदुमियदुमगहणो समागओ तया- 5 सम्न्नपारियायवीहियं कुमारपुत्रचंदो, पत्तो य नयणगोयरं रायदुहियाए । तओ मयणुक्कोवणपत्तणओ वसंतस्स, वियाकारिणओ जोव्णस्स, पोढत्तणओ कुमारख्वालंवणस्स, भूरिभवन्भत्थतयणुरायत्तणेण य चिरोवलद्वावसरविसमसरावेसविसज्जियनिसायसायगो व्व चड त्ति चहुट्टो सो तीए कमलकोमले वच्छयले । तयणु मउलिंतन यणकमला ऊससंतसिहिणमंडलायड्डियतुट्टंतकंचुयगुणा उग्भिन्नरोमहरियं कुरग्गलग्गतुसारसीयरायंतनिरंतर सेयबिंदू सिढिलियवीणावायण वेविरकरवियलियकोणदंडा विचेयण व्त्र ठिया मोणमत्रलंबिय खणमेसा । विन्नायभावाहि य महुरक्खरं 10 भणिया वयंसीहिं 'हा ! किमेयमयंडे सामिणीए सरीरस्स अम्महाभावो ? किं परिस्समाइ रेगो गिम्हु म्हछुहतहाइ रेगो वा एवं वियंभइ ?' | तओ सविलक्खं कडक्खिय रायसुयाए नीससिऊण भणियं पुप्फसुंदरीए “हला ! न कयाइ मए समणुभूयमेरिसमवत्थंतरं, तहा वि वियरेह ताव मंद मंद मारुयं, अन्नं च साहेह भो ! -इओ को एस नरलोयासंभविरूवलावन्नपुग्ननिहेलणं तरुणितरट्टिमरट्टवट्टणघरट्ठो जुवापुरिसो पुरओ निरूविज्जइ ? किमेस 'वसंतमित्तरज्ज' ति पमुइयमणो सच्छंदचारसुहमणुभवइ भयवं मयरकेतणो ? किं वा उज्जाणरमणिज्जया वज्जिओ विज्जाहरपहू ? उय 15 गयणमंडलुल्लंघणघण खेयखिन्नो वीसमणत्थमोइनो एस अंसुमाली ? तियसवइसावनिवाडिओ वा कोइ सुरवरो ?" त्ति । तओ ईसि इसिऊण जंपियं वियंगुदत्ताए “सामिणि ! मयरकेयणाईहिं कहमेस तोलिज्जइ ? अवि य मुकामी न इमो, न य विसमसरो, न इद्वमहुमासो | कह णु सुवयणे ! मयणो ता अह पच्चक्खरुइरंगो ? ॥ एस रूलायन संपयं संपयं निहालिता । न कुणति लज्जिया इत्र इहईं विज्जाहराऽऽगमणं ॥ ४० ॥ वेल्लहलकरो कक्खडकरेण दुदंसणेण सुप्पेच्छो । सूरेण समो सुंदरि ! न हु भन्नइ एस पहिं ॥ ४१ ॥ पवणंदोलिरकुवलयल संतलोयणजयस्स एयस्स । अग्घर कलं पि कह सुयणु ! सुरवरो थड्ढदिल्लिो ? ॥४२॥ किंच खसिसोमत्तु दिणिदतेउ सायर गंभीरिम, नहव- डिम सुरपहुपहुत्तु नग- नायगधीरिम | मयत्रइ-विक्कमु मयणरूवु घणवइ- चाइत्तणु, हरिवि पयावर सुयणु ! नूणु निम्मिउ एयत्तणु ॥ ४३ ॥ अहवा जं मयलंछणिकमलसंडि चंदणि नंदणत्रणि, पंचमराइ विलासिलासि नारिहिं नवजोव्वणि । पिंडिवि तं लायन्तु सयलु अमरण कल्लाविउ, तो सुंदरु नररयणु एउ दिव्त्रिण निम्माविउ ॥ ४४ ॥ अकलंककलानिलओ कुलनहयलमंडणो नयणसुहओ । तुह अत्ताए तणओ एसो नणु पुनचंदो "त्ति ॥ ४५ ॥ रायरसपमत्ताए भणियं तो पुण्फसुंदरीए वि । 'अइसुंदरनररयणं पियसहि ! सच्चं इमो जेण ॥ ४६॥ सत्तासो तरणी जडोऽमरगिरी चंदो कलंकंकिओ, खारो नीरनिही मैंई सुरकरी चिंतामणी निठुरो । ૧૧ Jain Education International 20 For Private & Personal Use Only 25 १ सङ्केत:- "दुमियति धवलित" ॥ २ रूयालं जे विना ॥ ३ 'लायन्नपु' जे विना ॥ ४ संकेत:- " निहेलणं ति गृहम् " ॥ ५ जुबपु जे० विना ॥ ६ सङ्केत:- " रतिः - मदनभार्या मदनक्रीडा च । विषमशरो विषमस्वरश्व । मधुमासः - चैत्रः मधुमाक्षिकं मांसं पिशितम्" ॥ ७ अमपण खं१ खं२ ॥ ८ सुंदरि ! न जे० विना । ९ सङ्केतः- “सत्तासो त्ति सवा ( त्रा) सः सप्ताश्वश्व" ॥ १० संकेत:- "मइ ति मदी-मदवान्" ॥ पु० १४ 30 www.jainelibrary.org

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