Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 139
________________ पुहवीचंदचरिए तइए देवसीह - कणय सुंदरीभवे दोन्हं देवलोगगमणं । तो काऊण पठ्ठे विहिणा रोमंचचच्चियसरीरो । अन्येभूयं पूयं पइदियहं काउमारद्धो ॥ ३१७ ॥ तहा वा इज्जतचउविहाउज्जाई दाइज्जंताणवज्जचोज्जाइं नाडिज्जंतकुसलगोज्जाई गिज्जंतजिणगुणपडिबद्ध-गीयाई बहुजणुप्पाइयोहिबीयाई अणुकीरमाणसुरा-सुरजीयाई पयट्टतरुणितरट्टिनट्टाई सुंदेर निहसत्रट्टाई संभारियजिणजम्मा भिसेयाई भव्त्रजणजणियसेयाई सयललोयविम्हावणाई कारवेइ जिणबिंबण्हावणाई, पवत्तेइ अमाधाया5 हिदियसयलसत्ताओ महामहन्तजत्ताओ, कारेइ मिच्छत्तवाहिपसमणाई रहनिग्गमणाई, निव्वत्तेइ पुष्पगंधाइभोगाहियाओ कल्लाणया अट्ठा हियाओ । किं बहुणा ? - सव्वे वि जिणवैरमंदिरेसु उस्सप्पणापत्रत्तेण । सम्मत्तमयं व कथं नियरज्जं तेण धनेण ॥ ३१८ ॥ जिणसाहु-वेइयाणं भत्तणुरत्तो पभावणुज्जुत्तो । जाओ जणो असेसो तसे तयणुमाणेण ॥ ३१९ ॥ एवं सावयचरियं चिरं चरंतस्स तस्स नरवइणो । पच्छिमत्रयम्मि संवेगजोगओ फुरियमिय हियए ॥ ३२० ॥ 'जुत्तमियाणिं मम निम्ममस्स सामन्नमुत्तमं चरिउं । गिहिधम्मकष्पतरुणो फलमेयं चैव जं भणियं ।। ३२१॥ किंतु न अज्ज वि रज्जोरुभारधरणम्मि पच्चलो कुमरो । तेण न तरामि चइउं एयं दढनेहबंधवसो ॥ ३२२ ॥ अहवा इमस्स र दाउ परिचत्तरज्जवावारो । चिट्ठामि धम्मनिरओ जा एसो पावइ पठ्ठे || ३२३ ॥ तोलियनियसामत्थो संजमभारं तओ धरिस्सामि । परिणामसुंदरमिणं एवं चिय होइ कीरंतं' ॥ ३२४ ॥ एवं संपहारिय कणयसुंदरि देवि-मंति-सामंतसम्मएण काऊण रायाभिसेयं नरसीहकुमारस्स जाओ अप्पणा चेइय15 जइतत्तिमेत्तपवित्ती संखित्ताणुव्त्रय-गुणव्वओ सामाइय-पोसहोववासाइतबोवहाणुज्जओ य । तओविहितवविहाणा सोसियासेसकाओ, चरणविरियलाभाभावओ भावसारं । अणसणमकलंकं कालमासे करित्ता, विमलजुइसुरो सो सुक्ककप्पम्मि जाओ ।। ३२५ ॥ अह सुचरियसारं देसचारितभारं धरिय दढमसन्ता सा विभूविंदकता । विहिवहुणियदेहा चत्पुत्ताइनेहा, बहुसुचरियपष्पं पाविया तं खु कुष्पं ।। ३२६ ।। एगम्म चैव मणिज्जतमे विमाणे, ते दो वि देवपत्ररा पुररिद्धिभोया । जाया असुरको डिकओवसेवा, आउं च तेसि दस सत्त य सागराई ॥ ३२७ ॥ इय पुहरचंदचरिए देवसीहरायसमणोवासगचरियं तइयं भवगहणं समन्तं ॥ [ गन्धाग्रम् - ७५५ ] 10 20 ८० १ यरूयं जे० ॥ २ भवियजण जे विना ॥ ३ जिणदर जे विना ॥ ४ भूद जे० विना ॥ ५ रमणीयतमे जे० विना ॥ Jain Education International [३.३१७-२७ ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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