Book Title: Puhaichandchariyam
Author(s): Shantisuri, Ramnikvijay Gani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 128
________________ १४५] सुयमिहुणकहाणए निहि कुंडल-पुरंदरजसाणं विवाह-रजसुहोवभोग-पव्वजा-देवलोगगमणाई। ६९ इम्मियतलाओ अवहरिऊणेहाणीयं विजयावइसामिणो समप्पिय नियपओयणसिद्धीए जएज्जासि' ति वोत्तूण गओ कावालितो। ____ कुमारो वि 'किं पुरंदरजसा चेव एस' ति सवियको समासासिऊण तं पुच्छिउं पवत्तो 'सुंदरि ! को एस निहिकुंडलो जो तए विहुरे सरणमब्भुवगओ ? । तीए वि 'जहा एयमुहकुहरविणिग्गया वयणामयबिंदुणो ममाणंदमुदीरंति तहा भवियव्यमेएण मम वल्लहेणं' ति निच्छिऊण भणियं 'दंसिस्सामि विजयावई पत्ता तं, तुम्ह पुच्छामि 5 पुण जीवियदाययं-कहमेयं सुन्नारनं देवयासहाएहिं तुम्भेहिं अलंकियं ? अवि कुसलं तुम्ह सरीरस्स ?' । कुमारेण भणियं 'कुसलं संपयं तुह मुहमयंकनिरिक्खणेण जीवियरक्खणेण य । अवि य हरिऊण तुरियतुरएण तरुणि ! दूराओ आणिओ अहयं । पुग्नेण व तुज्झ पुराकएण विनायथक्केण ॥१२३ ॥ इय परितोसपराणं सांउल्लरसुल्लसंतगत्ताणं । जंपंताणं ताणं झीणा रयणी खणद्धेण ॥१२४ ॥ तं चक्खुरक्खणाए ओमंथियमत्थयं नियइ जाव । कुमरो अतित्तनेत्तो पयासियं रविपईवेण ॥ १२५॥ 10 ता अस्सवारथटं वणंतरे सबओ वि य विसर्ट । अनिसमाणं कुमरं अंबरज्ज पयाणुसारेण ॥१२६ ॥ मयणं व पियासहियं घेत्तुं तं हरिसनिब्भरा सव्वे । संपत्ता नियकडयं, कमेण विजयावइपुरि च ॥ १२७ ॥ तो रयणचूडरना दुगुणियमाणंदमुन्वहंतेण । वारेजयमइरम्मं विहियं विहिणा कुमारस्स ।। १२८॥ गोरवमहग्धमच्छिय मोयात्रिय पत्थिवं कुमारो वि । पत्तो गहाय गिहिणिं सुहेण सिरिमंदिरं नयरं ॥ १२९ ॥ गुरुयणकयपरिओसस्स तस्स संपत्तचिंतियसुहस्स । दोगुंदुगदेवस्सेव पुबलक्खा गया णेगे ॥ १३०॥ 15 अह नरसेहरराया सद्धिं पडिसत्तुणा पयंडेग । जायम्मि दारुणरणे पहारविहुरो गो निहणं ।। १३१॥ तं सोउं अरईए गहिओ निहिकुंडलो गलियराओ । रज्जे संसारसुहे य भाविउं एवमाढत्तो ॥१३२॥ 'जीए चलम्मि खणभंगुरेसु भोएमु तुच्छविहवेसु । इट्टविओए पहवंतयम्मि कह रजिमो रज्जे ? ॥१३३॥ जम्म-जर-रोग-सोगा तार्विति निरंतरं जणं जत्थ । कह तत्थ मणुयभावे भाविज्जउ रइसुहे तण्डा ? ॥ १३४॥ मरणे अवस्समाविणि अनिययसमए अथक्कमिन्तम्मि । कह नाम मूढमणुया विलास-हासाई कुव्वंति ? ॥१३५ 20 मुविणिंदयालसा लमलियं सयलं पि नेहववहरणं । हीरइ वल्लहलोओ जणस्स जं मञ्चुणा पयर्ड' ॥१३६॥ इय जणयविरहविहुरियमणस्स विसयाणुरायविमुहस्स । ओसरिओ सुरमहिओ अणंतविरिओ जिणो तत्थ ॥ १३७ सोऊण जिणं अह सो मणयं उवसंतसोयसंतावो । वंदणकज्जेण गओ सभारिओ तिहुयणगुरुस्स ॥ १३८॥ पुन्वभवब्भासगुणा दिट्टे सहसा जिणे दिणेसे व्य । पत्तं पमोयमसमं तं मिहुणं चक्कमिहुणं च ॥ १३९ ॥ अह काऊण पणामं पुणो पुणो पायपंकए पहुणो । तम्मुहनिहित्तनयणं कयंजली सुणिय तब्बयणं ॥ १४०॥ 25 गंभीरदेसणारसभावियचित्तं गिहासमविरत्तं । दाउं सुयस्स रजं निक्खंतं तं महासत्तं ॥ १४१॥ परिवालिऊण विमलं सामनमहाउयक्खए धन्नं । सोहम्मदेवलोए सुरमिहुणत्तेण उववनं ॥१४२॥ भोत्तूण दिवभोए पलियाई पंच तत्थ गयसोए । निहिकुंडलसुरजीवो पढमयरं किर चुओ तत्तो ॥१४३॥ विजयम्मि महाकच्छे अलयाउरिविब्भमे विजयनयरे । महसेणनराहिववल्लहाए चंदाभदेवीए ॥१४४॥ सुयजम्मुम्माहियमाणसाए ओवाइएहिं विविहेहिं । कुच्छीए उववन्नो कयउन्नो पुत्तभावेण ॥ १४५॥ १ सङ्केत:-"थक्क त्ति अवसरः" ॥ २ सङ्केत:-“साउल्ल त्ति प्रेमवेत्कुरकेणाप(? प्रेमाङ्गुरकेण)" ॥ ३ “लज्जाए" खं१टि.॥ ४सङ्केत:-"ओमंथियमत्थयं ति लजया किश्चिदवनामितमस्तकम्" ॥ ५ सङ्केत:-"अवरज्ज ति अतिकान्तदिनम् । यदाह-गयभाविवासरेसु दिवसारंमे य अवरज्जो" [देशीनाममालावर्ग १. गा. ५६] ॥ ६ सङ्केतः-“साहुलं ति सदृशम्" ॥ ७ पंकयं पंजे.॥ 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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