________________
२२
बहुमानयुक्त परिचव भाया है, इस प्रशंसात्मक परिचय को देखते हुए यह निश्चित होजाता है कि इस गुरुस्तुति के कर्ता धर्मप्रभसूरि तो हो ही नहीं सकते । इस स्तुति के कर्ता का नाम तो स्पष्ट मालूम नहीं होता है किन्तु जबतक अन्य प्रामाणिक आधार नहीं मिलता है तब तक तो स्तुति के अन्त में आये हुए लक्ष्मीविंशाला ' इस श्लेषरूप शब्द से करमौविशाल नाम के मुनि की यह रचना है ऐसी संदिग्ध कल्पना की जा सकती है।
ग्रन्थकार के आठ प्रधान शिष्यों में से द्वितीय शिग्य विजयसिंहसूरि ने वि. सं. ११८३ में श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र पर चूर्णि की रचना की है। इस चूणि की प्रशस्ति में कर्त्ताने चन्द्रगन्छ, श्री सर्वदेवसूरि, श्री नेमिचन्द्रसरि और श्री शान्तिसूरि के नाम बताकर प्रस्तुत चूर्णिकार के रूप में अपना नाम दिया है। यहाँ अपने आपको पिप्पलगच्छीय नहीं बताया है। इस कारण से उपर बताई गई इनके दसवें पट्टवर धर्मप्रभमूरि के किसी शिष्य ने रची हुई गुरुस्तुति में श्री शान्तिसूरि ने पिप्पलगच्छ की स्थापना की थी यह बात विचारणीय बन जाती है। उक्त गुरुस्तुति के आधार से शान्तिसूरि के दूसरे पट्टधर (विजयसिंहसूरि) की शिष्यपरम्परा इस प्रकार है
आ० श्री शान्तिसूरि (पृथ्वीचन्द्रचरित्रकार)
विजयसिंहसूरि
देवभद्रसूरि
धर्मघोषसूरि
१ शीलभद्रसूरि
२ पूर्णदेवसूरि
विजयसे नरि
धर्मदेवसूरि
धर्मचन्द्रसूरि
धर्मरत्नसूरि
धर्मतिलकसरि
धर्मसिंहसूरि
धर्मप्रभसूरि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org