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ग्रन्थकार प्रस्तुत प्रन्थ के अन्त में भाई हुई प्रशस्ति में (पृ० २२१-२२ गा० २८५ से २९१ ) ग्रन्थकार का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
___ग्रन्थकार आ० श्री शान्तिसूरिजी, चन्द्रकुलीन भा• श्री सर्वदेवसूरि के शिष्य मा० श्री नेमिचन्द्ररि के शिष्य थे (प्रशस्ति गा० २८५-८७)। आ० श्री शान्तिसूरिजी का पक्ष लेकर उनको आ० श्री सर्वदेवसूरि (प्रन्थकार के प्रगुरु) के शिष्य मा० श्री श्रीचन्द्रसूरि ने आचार्यपद प्रदान किया था (प्रशस्ति गा० २८८)।
यहाँ " ग्रन्थकार का पक्ष लेकर श्री श्रीचन्द्रसूरि ने उनको आचार्यपद दिया," ऐसे प्रन्थकार के ही वक्तव्य से यह सहज स्पष्ट हो जाता है कि ग्रन्थकार के गुरु श्री नेमिचन्द्रसूरि को ग्रन्थकार को आचार्यपद देना अभीष्ट न था। फिर भी ग्रन्थकार ने अपने गुरु श्री नेमिचन्द्रसूरि को " श्रुनज्ञान के सागर, क्षान्त, दान्त, प्रशान्त, समर्थ, उज्ज्वलगुणवान्, मुनीन्द्र, उपविहारी और सूर्य-चन्द्र से भी अधिक तेजस्वी (प्रशस्ति गा० २८६)मादि यथार्थ विशेषणों से सम्मानितकर अपने गुरुपारतंत्र्य, सुशिष्यत्व, गुणज्ञत्व, सुसाधुत्व एवं महानुभावता का परिचय दिया है। साथ ही साथ यहाँ निर्ग्रन्थ समुदायों में बढते हुए न्यूनाधिक विमनस्कता के प्रसंगों में आत्मकल्याणसाधक सर्वत्यागी निर्ग्रन्थों के व्यवहार और प्रभाव का भी अच्छा परिचय मिलता है।
प्रन्थकार के प्रगुरु आ० श्री सर्वदेवसूरि से अनेक शिष्य अथवा आचार्यों की प्रशाखावाला गच्छ बना था (प्रशस्ति गा० २८५)।
ग्रन्थकार को आ० श्री धनेश्वरसूरिजी से विद्याभ्यासविषयक विविध मार्गदर्शन मिला था। इस बात का उल्लेख स्वयं प्रन्थकारने ही किया है ( देखिये पृ० २, गा० १०)। प्रन्थकार के प्रगुरु श्री सर्वदेवसूरिजी के पट्टशिष्य रूप में आठ समर्थ आचार्य थे। उनका उल्लेख करके मा० श्री मुनिसुन्दरसूरिरचित पट्टावली में इन आठ याचार्यों में से दो पदविका० श्री यशोभदसरि और आ० श्री नेमिचन्द्रसरि के नाम बताये हैं ( देखिये श्री यशोविजय जैन पध माला से प्रकाशित उक्त पट्टावली का पृ० १६ वा ) । शेष छ पट्टधराचार्यों के नामों में से एक श्री श्रीचन्द्रसूरि थे (प्रशस्ति गा० २८८ ) और दूसरे मा० श्री धनेश्वरसूरिजी थे, जिन्होंने चैत्रपुर में श्री वीरजिन की प्रतिष्ठा की थी । एवं उन्हीं से चत्रगच्छ का प्रारंभ हुआ था । यह वृत्तान्त आ० क्षेमकीर्तिरिकृत बृहत्कल्पसूत्रवृत्ति की प्रेशस्ति में एवं नयसुन्दरकृत सटीक रुपरिपाटी में उल्लिखित है, विशेष में उक्त गुरुपरिपाटी में यह बताया है कि भा० धनेश्वरसरि ने सातसौ क्षपणको को अपने हाथ से दीक्षा दी थी । आ० धनेश्वरसूरि के पट्टशिष्य श्री भुवनचन्द्रसरि की पड़परम्परा में
१. श्री जनशासननमस्तलतिग्मरश्मिः, श्रीसद्मचान्द्रकुलपद्मविकासकारी । स्वज्योतिरावृतदिगम्बरडम्बरोऽभूत, श्रीमान् धनेश्वरगुरुः प्रथितः पृथिव्याम् ॥॥ श्रीमत्रपुरेकमण्डनमहावीरप्रतिष्ठाकृतस्तस्माच्चैत्रपुरप्रयोधतरणेः श्रीयंत्रगच्छोऽजनि । तत्र श्रीभूवनेम्दुसरिसुगुरुभभषणं भासुरज्योतिः सद्गुणरत्नरोहणगिरिः कालक्रमेणाभवत् ॥८॥ (पू. पा० मुनिवर्य श्रीचतुरविजयजी तथा पू० पा० विद्वद्वरेण्य मनि श्रीपुण्यविजयजी (आगमप्रभाकरजी) सम्पादित नियुक्ति-भाष्य-पत्त्युपेतं बृहत्कल्पसूत्रम् भा० ६ पृ. १५१.)।
२-३. पूणो विसिरिसम्वदेषमुणी [गा०] १०॥' पुणो वि 'सिरिसम्वदेवमुणि 'ति भोदेवरिप? पुनरपि श्रीसर्वदेवमनिः, सरिरित्यर्थः ॥१०॥ जेण य अडायरिया [?]समयमुत्तत्थदायमा ठधिया। तत्थ बजेसरपरी पभाषगो वीरतित्यस्म ॥१॥ खवणाणं सत्र सया पगुच्चिय दिक्खिया महत्थेणं । विसपुरे मिणवीरो पद्रिमो चितगोति॥१२॥ तत्थ सिरिचित्तगच्छे तो गुरू भुषणचंद तप्पट्टे । माघजीवं अंबिलतवकरणामिग्गा उग्गा ॥१३॥ (श्री सिधी जैन प्रथमाला तरफ से प्रकाशित 'विविधगच्छपट्टावलीसंग्रह ' गत श्री नयसुन्दरसूरिकृत 'पटीक गापरिपाटी'.१९२.) यह गुरुपरिपाटी वृहत्तोसालिकपट्टावली अथवा बृहत्तपोगणगुर्वावली के नामसे भी प्रसिद्ध है।
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