Book Title: Pravachansar Parmagam
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Dulichand Jain Granthmala

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Page 11
________________ 'पोठिका सहित अपेक्षा जो वचन, सो सत्र वस्तुस्वरूप । रहित अपेक्षा जो वचन, सो सब अमतमकूप ॥ १४ ॥ अनेकान्त एकान्तकी, इतनी है पहिचान । एक पक्ष एकान्त मत, अनेकान्त सब थान ॥ १५ ॥ अनेकान्त मतकी यहाँ, वरतै नहिं एकान्त । अनेकान्त ह है यहां, अनेकान्त निरभ्रांत ॥ १६ ॥ सम्यग्ज्ञान प्रमान है, नय हैं ताके अंग । । साधनसाध्य दशावि, इनकी उठत तरंग ॥ १७ ॥ वस्तुरूप साधन विपं, करत प्रमान प्रवेश । नयके द्वारन वरनियत, ताके सकल विशेष ॥ १८ ॥ लक्ष्यवि जो वसत मित, लक्षण ताको नाम । जाके द्वार विलोकिये, लक्ष्य अबाध ललाय ॥ १९ ॥ इत्यादिक जे न्याय-मग, नय निक्षेप विधान । जिनवाणी सो मिलत सब, स्व-पर भेदविज्ञान ॥२०॥ ताते जिनवानी नों, अभिमतफल दातार । मो मनमन्दिरमें सदा, करो प्रकाश उदार ॥ २१ ॥ द्रु मिलावृत । (आठ सगण) सब वस्तु अनन्त गुनातमको, जु यथास्थरूप सुसिद्ध करै । परमान'नयौर निक्षेपदशा करि, मोहमहाश्रमभाव हरै ॥

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