Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahadur Lala Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Jouhari
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________________ है. साणिय, जग, फिफित, मत्थुलिंग, * हिययंत; पित्त, फोफम, दंतहा; अद्विमिजा, नह. नयण, कण्ह, हारुणि, नकं, धमणि, सिंग, दाढि,पिच्छ,विस विमाण, बालहउ, हिंसतिय // भमर मधुकरि गणे रसेमुगिहा तहेव तेइदिए सरीरोगरणट्टयाए, बेइदिए बहवे वत्थाहर परिमंडणट्टयाए, अगणेहिय एव मादिएहिं बहूहि कारण सएहिं, अबूहा इह हिंसाततस पाणे // 3 // इमेय एगिदिए बहवे बराए तसेय अण्ण तदस्मिए चेव तणुसरीरे समारंभति अत्ताणे असरणे अणाहे, अबंध, कम्मीन गडबढे, अकुसल परिणाम मंदबुद्धि जण दुध्विजाणए // 4 // पुढविमए पुढविसंसिए * कान, स्नायु, नाडी, शृङ्ग, दांत, पांख, विष, विषाण और केश के लिये पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा करते हैं. रसगृद्ध पुरुषों भ्रमर व भ्रमरी के समुह मधु ( सहद ) के लिये मारते हैं, शरीर का कष्ट मीटाने के लिये खटमल इत्यादि मारते हैं. शरीर की विभषा के लिये रेशम - इत्यादि बनाने में द्वान्द्रिय जीवों का घात करते हैं, यों अज्ञानी जीव अनेक कारन से त्रस प्राणी की हिंसा करते हैं // 3 // और भी एकेन्द्रिय जीव के आश्रित बहुत बम जीव तथा त्रस आश्रित एकेन्द्रिय जीवों का घात करते हैं. ये जीव त्राण रहित हैं, अनाथ, स्वजन रहित हैं,कर्मरूप लोह शृंखल से बंधे हुवे अकुशल / 1 अध्यवसायवाले, ज्ञानबुद्धि और आश्रय रहित हैं ! // 4 // अब स्थावर कायादिक का आरंभ " 4. अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी - भकाशक-राजाबहादुर लालासुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी