Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

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Page 17
________________ प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन अन्यरुप : प्रशमरति प्रकरण वैराग्य विषयक ग्रन्थ है। इसकी मान्यता जैनधर्म के दोनों सम्प्रदायों में है, इसका उल्लेख धवल टीका में वीरसेनाचार्य ने किया है। इस ग्रन्थ पर दो संस्कृत टीकाएं श्वेताम्बराचार्यों कृत अभी तक मुद्रित हुई हैं। इसमें प्राचीन टीका श्री हरिभद्र सूरि की है। यह टीका जैन धर्म प्रसारण सभा, भावनगर से वीर निर्वाण सं० 2436 में मुद्रित हुई थी, जो अब अप्राप्य है। दूसरी टीका देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फंड से छपी थी, जो भी अप्राप्य है। जैनशास्त्रमाला से प्रकाशित ग्रन्थ प्राप्य है जिसका अनुवाद स्याद्वाद महाविद्यालय काशी के प्रधानाध्यापक पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने शुरु किया था, पर पं० जी को अवकाश न होने से साहित्याचार्य पं० राजकुमारजी शास्त्री ने पूरा किया। पं० राजकुमार शास्त्री जी ने मुद्रित प्रति और 4-5 हस्तलिखित प्रतियों के आधार से मूल और संस्कृत टीका का संशोध नि-सम्पादन बड़े परिश्रम से किया है, तथा भाषा टीका भी बहुत सुन्दर और सरल लिखी है। इसके साथ ही ग्रन्थ के अन्त में संस्कृत भाषा में लिखित एक अवचूरि विद्यमान है जिनमें 313 सूत्र हैं। इस प्रकार अवचूरि के आधार पर ही मूल ग्रन्थ को बाईस अधिकारों में विभाजित किया गया है । उद्देश्य : प्रशमरति प्रकरण नामक ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य संसार के भव्य प्राणियों की प्रशमसुख की ओर आकृष्ट कर वैराग्य-प्रीति में दृढ़ करना है ताकि वे भव-समुद्र को पार कर शाश्वत, चिरन्तन, अनुपम, अव्याहाप-अनन्त मोक्ष सुख को प्राप्त कर सकें तथा जन्म-मरण के चक्कर से सदा के लिए मुक्त हो जाँय। इस प्रकार ग्रन्थ-रचना का मुख्य अभिप्राय वैराग्य के प्रेम में मुमुक्ष जीव को स्थिर करना है 291 विषय परिचय : ग्रन्थ की भाषा संस्कृत है। इसमें कुल 313 कारिकाएँ हैं। यहाँ पर श्लोक के स्थान पर कारिका का प्रयोग किया गया है। यह ग्रन्थ निम्न बाईस अधिकारों में विभक्त है 30 जिनका विषय परिचय इस प्रकार है: 1. पीठ बन्याधिकार : ग्रन्थ का प्रथम अधिकार पीठ बन्याधिकार है। सर्वप्रथम ग्रन्थकार ने ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए चौबीस तीर्थकारों को नमस्कार किया है। दूसरे कारिका के द्वारा इन्होंने पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करके जिन शासन के आधार पर ग्रन्थ बनाने का संकल्प लिया है। आगे 33 कारिका में जिनशासन रुपी नगर में प्रवेश करना अल्पज्ञों के लिए अत्यंत दुष्कर बतलाया है। चौथे से सातवें कारिका में अपनी लघुता स्वीकार करते हुए ग्रन्थकार ने वैराग्य मार्ग की पगडंडी रुप इस रचना की प्रतिज्ञा की है।

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