Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेद हैं- (१) मिथ्यात्व (२) सम्यकमिथ्यात्व (३) सम्यकत्व मोहनीय। सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के दलिक ही विशुद्ध होने पर सम्यक्त्व कहे जाते हैं तथा उसी मिथ्यात्व के विशुद्ध दलों को सम्यक मिथ्यात्व कहते हैं। इनके तीन भेदों में मिथ्यात्व दर्शन मोहनीय कर्म ही बलवान हैं, क्योंकि इसके रहने से मोहनीय कर्म प्रबल रहता है 511
चारित्र मोहनीय कर्म के पच्चीस52 भेद है- अनन्तानुबन्थी, क्रोध-माया-मान-लोभ, अप्रत्याख्यानावरण कोथ-मान-माया-लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ, संज्वलन क्रोथ-मान-माया-लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुंवेद, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद। इस प्रकार मोहनीय कर्म की अट्ठाईस उत्तर प्रकृतियां हैं 53 ।
आयु कर्म :
कर्म का पांचवा भेद आयु कर्म है। प्रशमरति प्रकरण में आयु कर्म के स्वरुप का कथन किया गया है और बतलाया गया है कि जिसं कर्म के उदय से जीव जीता है या प्राणों को धारण करता है, वह आयु कर्म है 54 । अर्थात् किसी विवक्षित शरीर में जीव की रहने की अवधि को आयु कर्म कहते हैं।
आयु की उत्तर प्रकृतियाँ चार हैं - नरकायु, तिथंचायु, मनुष्यायु और देवायु 55 ।
नाम कर्म:
कर्म का छठवां भेद नाम कर्म है। प्रशमरति प्रकरण में नाम कर्म के स्वरुप का कथन कर बतलाया गया है कि जिस कर्म के उदय से गति-जाति आदि की प्राप्ति होती है, उसे नाम कर्म कहते हैं 56।
नाम कर्म की उत्तर प्रकृतियां बयालीस बतलायी गयी है जो निम्नवत् हैं - गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्धन, संस्थान, संघात, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास, विहायोगति, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, त्रस, स्थावर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, दुःस्वर, सूक्ष्म, वादर, पर्याप्ति, अपर्याप्ति, स्थिर, अस्थिर, अनादेय, आदेय, यश, अयश और तीर्थंकर नाम।
गोत्र कर्म :
कर्म का सांतवा भेद गोत्र कर्म है। इस कर्म की परिभाषा प्रशमरति में दी गयी है और बतलाया गया है कि जिस कर्म के उदय से जीव उँच-नीच कुल में उत्पन्न होता है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं 57। गोत्र कर्म के दो भेद हैं 8- (क) उच्च गोत्रकर्म (ख) नीच गोत्रकर्म।