Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

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Page 112
________________ 103 पंचम अध्याय शाश्वत है, उर्ध्वगमन स्वभाववाला है। (डॉ०) लाल चन्द जैन जी ने अपने जैन दर्शन में आत्मविचार ग्रन्थ में मोक्ष के संबंध में विशेष चर्चा की है जो निम्नांकित है:3 मोक्ष में जीव का असद्भाव नहीं होता : प्रशमरति प्रकरण में ऐसा बतलाया गया है कि मोक्ष में जीव का असद्भाव नहीं होता है। यद्यपि बौद्ध दार्शनिकों ने मोक्ष में जीव का अभाव माना है तथा दृष्टांत प्रस्तुत किया है कि जिस प्रकार दीपक के बुझ जाने से प्रकाश का अन्त हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों के क्षय हो जाने से निर्वाण में चित्त स्मृति का विनाश हो जाता है। अतः मोक्ष में जीव का अस्तित्व नहीं है। उपर्युक्त मत का निराकरण करते हुए प्रशमरति प्रकरण में बतलाया गया है कि मोक्ष में जीव का अभाव नहीं होता है, क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है। इसके अर्थों की सिद्धि स्वतः ही हुआ करती है। इसका कारण यह है कि यह दीपक की शिखा की तरह परिणामी है। जैसे दीपक की शिखा काजल आदि रुप में परिणमन करती है और उसके बाद उस काजल का भी कोई दूसरा परिणमन देखा जाता है। अतः यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है कि वस्तु निरन्वय विनाश मानने पर उसकी सिद्धि के लिए हेतु और दृष्टांत मिलना असंभव ही है। -अतः परिणामी होने के कारण जीव का स्वरुप ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ही है, क्योंकि जीव कमी भी अपने उपयोगमयी स्वभाव को नहीं छोड़ता। अतः आत्मा का ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग स्वभाव किसी पर के निमित्त से उत्पन्न नहीं होता किन्तु यह अनादि काल से ही स्वतः सिद्ध है। यद्यपि उपयोग से उपयोगान्तर होता रहता है परन्तु उपयोग समान्य का नाश नहीं होता है। जिस प्रकार कोई पुरुष एक गाँव से दूसरे गाँव में चला जाता है तो उस पुरुष का सर्वथा अभाव होता है, उसी प्रकार जीव के मुक्त होने पर भी उसका अभाव नहीं हो जाता है। इसके सिवाय वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित आगम में भी मुक्तात्मा को ज्ञान-दर्शनमयी स्वभाव वाला कहा गया है। अतः मुक्तावस्था में जीव सर्वथा अभाव रुप सिद्ध नहीं होता है। मुक्तात्मा का आकार: मुक्तात्मा निश्चयनय की अपेक्षा से निराकर होती है, क्योंकि वह इन्द्रियों से दिखलाई नहीं पड़ती है, लेकिन व्यवहार नय की अपेक्षा वह साकार होती है। मुक्तात्मा का आकार मुक्त हुए शरीर से किंचित न्यून अर्थात् कुछ कम होने का कारण यह है कि चरम-शरीर के नाक, कान, नाखून आदि कुछ अंगोपांग खोखले हो जाते हैं। परन्तु शैलशी हो जाने पर ध्यानबल से वे खाली भाग आत्म-प्रदेशों से पूरित हो जाते हैं और उन भागों के पूरित हो जाने से आत्मा के प्रदेश धनीभूत हो जाते हैं तथा इस प्रकार घनीभूतीकरण से तथा शरीर की अवगाहना से आत्म प्रदेशों की अवगाहना एक तिहाई भाग कम हो जाती है।

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