Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन
116 पूर्वक कथन किया है। इसमें मुनि आचार संबंधी भावना के स्वरुप एवं इसके अनित्यादि बारह भेदों का उल्लेख कर कषाय पर विजय पाने के लिए धर्मों के पालन करने का निर्देश किया गया है। इसमें धर्म स्वरुप एवं उसके क्षमादि दस भेदों का विस्तार पूर्वक कथन करके उपसंहार के रुप में बतलाया गया है कि दस धर्म का पालन करने वाला मुनि ही चिरकाल... संचित दुर्भध राग, द्वेष और मोह को थोड़े ही समय में उपशम करके क्रमशः बलशाली परीषह, गौरव कषाय, योग और इन्द्रियों के समूह को नष्ट कर देता है। परन्तु जबतक वह पंच महापापों से विरत नहीं होता, तबतक वह अपना शुद्ध स्वरुप प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकता है। अतः उस मुनि को अपने स्वरुप-प्राप्ति के लिए पंचमहाव्रतों - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का सम्यक् पालन करना परमावश्यक है। इस प्रकार महाव्रती मुनि ही परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। ____इसमें मुनि-आचार के साथ ही श्रावक आचार के स्वरुप का कथन करके श्रावकों के पालन करने योग्य पंच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत का सम्यक् निरुपण किया गया है। इस प्रकार इसमें श्रावक के कुल बारह प्रकार के व्रतों के विवेचनोपरांत संलेखना व्रत का उल्लेख किया गया है तथा बतलाया गया है कि जो श्रावक व्रतों का पालन करते हुए संलेखना पूर्वक आराधना कर मृत्यु को प्राप्त होता है, वह लोक में इन्द्र पद को प्राप्त करता है और क्रमशः आव भवों के अन्दर ही नियम से मोक्ष प्राप्त करता है।
इस प्रकार उक्त दोनों प्रकार के आचारों में मुनि-आचार परम उत्कृष्ट है जिनका स्वाभाविक फल मोक्ष की प्राप्ति है। जबकि गृहस्थाचार का वैषयिक फल स्वर्ग एवं परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति है। अतः मोक्ष की दृष्टि से मुनि आचार ही उपादेय है तथा मुमुक्षुओं के लिए आचरणीय है। ___ इसमें जीव-बंध की प्रक्रिया एवं हेतु पर गहन विचार करते हुए बंध के स्वरुप एवं उसके भेदों का विस्तार सहित वर्णन किया गया है। इसमें कर्मबंध का प्रमुख कारण कषाय एवं उसके चार भेदों का उल्लेख कर मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और योग को राग-द्वेष की सेना माना गया है। इसके साथ ही कर्मबंध की स्थिति को दृढ़ करने वाली छह लेश्याओं का क्रमशः निरुपण करके ज्ञानावरणदि मूल कर्म एवं उनके उत्तर प्रकृतियों का विस्तारपूर्वक विश्लेषण किया गया है। इस प्रकार जीव बंध प्रक्रिया के मूल कारण राग-द्वेष का वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुतिकरण कर इसमें जीव और कर्म का संबंध सोना और किट्टकालिया की तरह अनादिकालीन माना गया है।
इसमें मोक्ष-स्वरुप के साथ ही मुक्तात्मा के आकार एवं उर्ध्वगमन के कारणों पर दृष्टांत प्रस्तुत किया गया है और उनका उर्ध्वगमन लोकान्त तक ही बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें मोक्ष हेतु त्रिरत्न-सम्यक-दर्शन-ज्ञान-चारित्र निरुपण एवं उसकी प्राप्ति की प्रक्रिया का सूक्ष्म, तर्कसंगत और वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। इस प्रकार मोक्ष स्वरुप-भेद विमर्श में अंत में बतलाया गया है कि मोक्ष-प्राप्ति की उक्त प्रक्रिया द्वारा ही