Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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पंचम अध्याय से चिन्तित दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जानता है, उसे विपुलमति मनः पर्यय ज्ञान कहते
___ इस प्रकार मनःपर्ययज्ञान क्षयोपशमिक ज्ञान है। इसका विषय रुपी पदार्थ का अनन्तवां भाग है241
अवधि और मनःपर्यय ज्ञान में विशेषता :
अवधि और मनः पर्ययज्ञान विशुद्धतर है। स्वामी, क्षेत्र, काल, विषय और विशुद्धि की अपेक्षा इन दोनों में विशेषता है25। केवल ज्ञान :
केवल ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है। यह समस्त ज्ञानों में परम उत्कृष्ट है। प्रशमरति प्रकरण के टीकाकार में केवल ज्ञान के स्वरुप का कथन किया है और बतलाया है कि जो त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों एवं उसके पर्यायों को आत्मा की सहायता से प्रत्यक्ष रुप से जानता है, उसे केवल ज्ञान कहते हैं। यह पूर्णरुपेन क्षायिक ज्ञान हैं क्योंकि यह ज्ञान ज्ञानावरण कर्मों के आत्यन्तिक क्षय से उत्पन्न होता है26। इसका विषय त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य एवं उसके पर्याय हैं।
एक जीव में एक साथ चार ज्ञान का होना :
मतिआदि पांच ज्ञानों में प्रारम्भ के चार ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं और एक केवल ज्ञान क्षायिक ज्ञान है। क्षायिक ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षय से होता है, इसलिए वह अकेला ही रहता है। एक जीव के एक साथ एक से लेकर चार तक ज्ञान हो सकते हैं। जैसे एक ज्ञान हो तो केवल ज्ञान, दो हों तो मति-श्रुत ज्ञान,तीन हों तो मति, श्रुत और अवधि और चार हों तो मति-श्रुत अवधि और मनः पर्यय । इस प्रकार एक जीव के एक से चार ज्ञान ते होते हैं, पांच ज्ञान एक साथ कभी नहीं होते हैं। सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान में भेद होने के कारण :
मति, श्रुत और अवधि - ये तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान दोनों रुप होते हैं। जब ये सम्यग्दृष्टि जीव के होते हैं, तब सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं। परन्तु जब ये मिथ्या दृष्टि जीव के होते हैं, तब मिथ्याज्ञान माने जाते हैं। यद्यपि ज्ञान न मिथ्या होता है और न सम्यक, तो भी पात्र की विशेषता से उसमें मिथ्या और सम्य का व्यवहार होता है। जिस प्रकार पात्र की विशेषता से दूध कड़वा कहा जाता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि पात्र की विशेषता से ज्ञान मिथ्याज्ञान कहा जाता है। यद्यपि मिथ्या दृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवों को पदार्थ का प्रतिभास सामान्य रुप से एक समान होता है तो भी मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान ही रहता है, क्योंकि उसे सत् और असत् पदार्थ में कोई विशेषता नहीं रहती, वह अपनी इच्छा से दोनों