Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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चतुर्थ अध्याय है ठीक उसी प्रकार की स्थिति घ्राणेन्द्रिय के विषय में आसक्त रहने वाले मनुष्यों की होती है 73 । वह मनुष्य जो मद भरी हँसी तथा कटाक्ष से पागल हो जाता है, स्त्री के रुप पर आसक्त होकर पतंग की तरह विपत्ति का शिकार बनता है 74 | वही मनुष्य जब श्रोत्रेन्द्रिय में आसक्त होता है, तो वह हिरन की तरह विनाश-लीला को प्राप्त होता है। जिस प्रकार हिरन वन में शिकारी के संगीत-ध्वनि में आसक्त होकर अपना सर्वनाश कर बैठता है, उसी प्रकार गायकों आदि के मनोहारी शब्दों को सुनकर मनुष्य कर्णेन्द्रिय के विषय में फँसकर वह अपना सब कुछ नाश करता है ।
इस प्रकार इन्द्रिय सुख क्षणिक है जिसके बार-बार सेवन करने पर सर्वदा तृप्ति नहीं होती है, क्योंकि ये इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में एक रस नहीं हैं 76। परिणाम वश इष्ट विषय अनिष्ट लगने लगता है और अनिष्ट विषय भी इष्ट लगने लगता है । जीव प्रयोजन के अनुसार व्यपार करता है। इस तरह जैसा प्रयोजन होता है, उसके अनुसार व्यापार करता है। इस तरह जैसा प्रयोजन होता है, उसके अनुसार जीव इष्ट अथवा अनिष्ट की कल्पना कर लेते हैं। परन्तु ये विषय इष्ट और अनिष्ट नहीं हैं। मनुष्य अपनी राग-द्वेषमयी परिणति के कारण अपने प्रयोजन के अनुसार उनमें इष्ट या अनिष्ट भाव रखते हैं। यदि यह विषय ही इष्ट अथवा अनिष्ट होता तो जो विषय एक मनुष्य को इष्ट होता, वह सबके लिए इष्ट ही होता और जो एक को अनिष्ट होता वह सबके लिए भी अनिष्ट ही होता। परन्तु, लोक ऐसा दृष्टिगत नहीं होता है। एक पदार्थ में भी दो मनुष्य अपने-अपने प्रयोजन के अनुसार इष्ट और अनिष्ट की कल्पना किया करते हैं।
इस प्रकार यह कटु सत्य है कि राग-द्वेष से युक्त जीव को केवल कर्मबंध ही होता है जिसके कारण इसका संसार-वास हल्का नहीं हो पाता। इस राग द्वेष की पूर्ण परिणति से उसका तनिक भी कल्याण नहीं होता है80 | केवल इससे राग-द्वेष आदि परिणाम उत्पन्न होते रहते हैं। इस प्रकार जीव-बन्ध का चक्र चलता रहता है।
ग्रन्थकार ने संसार भ्रमण चक्र को कारण निर्देश सहित निरुपित किया है तथा बतलाया है कि संसारस्थ अशुद्ध जीव का अशुद्ध परिणाम होता है, उस राग-द्वेष मोह जनित अशुद्ध परिणामों से आठ प्रकार का कर्मबन्ध होता है, पुद्गलमय बंधे हुए कर्मों से मनुष्यादि गतियों में गमन होता है। मनुष्यादि गति में प्राप्त होनेवाले औदारिक आदि शरीर का जन्म होता है। शरीर होने से इन्द्रियों की रचना होती है, इन्द्रियों से रुप रसादि विषयों का ग्रहण होता है अथवा इष्टानिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् पूर्वकर्मानुसार कर्मादि उत्पन्न होते रहते हैं। इस प्रकार जीव का संसार रुपी चक्रवात में भव परिणमन होता रहता है। यह भव भ्रमण अभव्य जीवों के लिए आनादि अनन्त है:2। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जीव और कर्म का सम्बन्ध सोना और किट्टकालिमा की तरह अनादिकालीन है और उनमें राग-द्वेष, जीव बंध की प्रक्रिया में प्रमुख हेतु है ।