Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन 21. मोक्षगमणविधानाधिकार :
इस ग्रन्थ का इक्कीसवाँ अधिकार मोक्षगमणविधानाधिकार है। इसमें यह बतलाया गया है कि केवली अंतिम समय में कर्म दलिकों को क्षयकर अघातिया कर्मों के समूह को नष्ट करके ऋजुश्रेणी गति को प्राप्त करते हुए विग्रहरहित बिना किसी बाथा के ऊपर जाकर लोक के अग्रभाग में साकार उपयोग से सिद्धि पद को प्राप्त होता है, क्योंकि निष्परिग्रही एवं निर्ग्रन्थी जीव स्वभाव से उर्ध्वगामी होता है (284-294) । इस प्रकार जीव के अनुपम सुख सिद्धि का कथन करके बतलाया गया है कि जिन साधुओं को मुक्ति-प्राप्ति के समस्त साधन सुलभ हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है, किन्तु जिन्हें समग्र सामग्री की प्राप्ति नहीं होती है, वे मरकर प्रभावशाली महर्द्धिक देव होते हैं (295-298) 50 | 22. अनन्तफलाभिधानाधिकार : ___इस ग्रन्थ का अंतिम अधिकार अनन्तफलाभिधानाधिकार है। इसमें यही बतलाया गया है कि वही साधु पुनः मनुष्य लोक में जन्म लेकर परम्परानुसार केवल तीन ही भव में मोक्ष प्राप्त करता है (299-301) । __ आगे गृहस्थ की चर्या के लिए बारह प्रकार के श्रावक धर्म का पालन करना आवश्यक बतलाया गया है। इसमें उल्लेख किया गया है कि जो श्रावक धर्म का पालन कर संलेखनापूर्वक मरण करके पुनः मनुष्य लोक में जन्म लेकर दुर्लम सुख को भोगता है, वह(श्रावक) आठ भवों के अन्दर शुद्ध होकर नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है (302-308)। इस प्रकार मनुष्यों में उत्तर गुणों से सम्पन्न मुनि और श्रावक प्रशमरति के द्वार स्वर्ग और मोक्ष के शुभ फल को प्राप्त करते हैं (309) 51|
आगे ग्रन्थकार ने रत्नों के आकार समुद्र से निकाली गई जीर्ण कौड़ी की तरह जिनशासनरूपी समुद्र से भक्तिपूर्वक ली गई इस धर्मकथा को सुनकर गुण-दोष के ज्ञाता सज्जनों से दोषों को छोड़कर, गुण के अंशों को ग्रहण करने तथा सब प्रकार के प्रशमसुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने का आग्रह किया है और ग्रन्थ-रचना के क्रम में आगम के विरुद्ध किसी भी प्रकार के आचरण के लिए दोषी पाये जाने पर विद्वानों से पुत्र-अपराध की तरह क्षमा याचना कर समस्त सुखों का मूल बीज स्वरुप जिनशासन का जय-जयकार किया है (310-313)52 । इस प्रकार ग्रन्थ-परिचय पूर्ण हुआ। (ख) टीकाएँ एवं टीकाकार :
प्रशमरति प्रकरण एक मोक्ष विषयक ग्रन्थ होने के कारण विभिन्न आचार्यों एवम् विद्वानों ने विभिन्न भाषाओं में टीकाएँ लिखी हैं जिसकी चर्चा गत प्रकरण में की गयी है। इन टीकाओं में सबसे अधिक आचार्य हरिभद्र सूरि की टीका प्रसिद्ध है जो संस्कृत भाषा मे लिखी