Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन धर्मध्यान तप है 77। असके चार भेद हैं 781 -(1) आज्ञा विचय (2) अपाय विचय (3) विपाक विचय (4) संस्थान विचय।
आज्ञा विचय : - आप्त के वचन के अर्थ का निरुपण करना आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है। अथवा प्रवचन के रुप में सर्वज्ञदेव ने जो आज्ञा दी है, उसकी गुण-शालिता और निर्दोषता का विचार करना आज्ञा विचय है। सारांश यह है कि द्वादशांग वाणी के अर्थ के अभ्यास करने को आज्ञा विचय धर्मध्यान कहते हैं 791
अपाय विचय : __आश्रव विकथा, गौरव, परीषह आदि में अनर्थ का चिन्तन करना अपाय विचय नामक धर्मध्यान है। मन-वचन-काय के व्यापार को आनव और स्त्री, भोजन, चोर और देश की बातें करना विकथा कहा गया है। ऐश्वर्य सुख-रस को गौरव एवं भूख-प्यास आदि की बाधा को परीषह कहा गया है। जो जीव उक्त ध्यान में पड़ता है, उसे नरक आदि गतियों में नाना प्रकार आस्रव आदि की बुराइयों का चिन्तन करना, उपाय विचय धर्मध्यान है 80 | विपाक विचय :
शुभ और अशुभ कर्मों के रस का विचार करना, विपाक विचय धर्मध्यान है 81 | कर्म दो प्रकार के हैं- शुभ और अशुभ। दोनों प्रकार के कर्मों का विचार करना कि अशुभ कर्मों का फल यह होता है और शुभ कर्मों का यह फल होता है, इस प्रकार चिन्तन करनेवाले ६ यान को विपाक विचय धर्मध्यान कहते हैं 82 | संस्थान विचय :
क्षेत्र के आकार का चिन्तन करना, संस्थान विचय नामक धर्मध्यान है 83 । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल- छह द्रव्यों का क्षेत्र उर्ध्व मध्य एवं अधोलोक है, जिनके आकार का चिन्तन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है 84। - धर्म ध्यानों के पालन करने से मुनि के घाति कर्म के क्षय के एक देश से उत्पन्न होनेवाला, अनेक ऋद्धियों के वैभव से युक्त अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है। फिर भी इन दुर्लभ ऋद्धियों में वे निर्मोही हैं। जबकि मुनियों को जो ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब ऋद्धियों से उत्कृष्ट होती हैं। इस प्रकार कषायजयी मुनि लाखों भवों में दुलर्भ यथाख्यात चारित्र को तीर्थंकर की भांति प्राप्त करता है 85 ।
शुक्ल ध्यान :
जो ध्यान शारीरिक और मानसिक दुःख का छेदन करता है, उसे शुक्ल ध्यान कहते