Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन
68 प्रकृतियों को क्षय कर औदारिक, वैकियिक और कार्मण शरीर से मुक्त होता हुआ स्पर्श रहित ऋजुश्रेणी गति को प्राप्त करके विग्रह रहित एक समय में बिना किसी बाथा के उपर जाकर लोक के अग्रभाग को प्राप्त कर जन्म, जरा, मरण और रोग से विमुक्त होकर विमल सिद्ध क्षेत्र में साकार उपयोग से सिद्विपद को प्राप्त होते हैं।
वैयावृत्य आभ्यान्तर तप :
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शेक्ष, गुण, कुल, संघ, रोगी, साधु और मनोज्ञ-इन दस प्रकार के साधुओं की सेवा-शश्रूषा करने को वैयावृत्य कहते हैं। यह वैयावृत्य आचार्य आदि दस प्रकार के मुनियों को होता है। इसलिए आश्रय के भेद से वैयावृत्य तप भी दस प्रकार का माना गया है ।
विनय आभ्यांतर तप: ___ सम्यक् दर्शन और सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र के प्रति मन, वचन-काय से जो आदर भाव प्रकट किया जाता है, उसे विनय आभ्यांतर तप कहते हैं 96। वास्तव में विनय समस्त मानवीय गुणों में प्रधान है। विनय के चार भेद हैं- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, उपचार विनय ।। दर्शन विनय :
जीवादि सप्त तत्वों के विषय में जहाँ निःशङ्ता आदि लक्षणों से सहितपना होता है, वह दर्शन विनय है। ज्ञान विनय :
जो बहुत सम्मान आदि के साथ ज्ञान का ग्रहण, अभ्यास तथा स्मरण आदि किया जाता है, वह ज्ञान विनय है। मुनि को ज्ञान विनय होता है।
चारित्र विनय : ___ सम्यक्त्व और ज्ञान से युक्त पुरुष की चारित्र के प्रति जो उत्सुकता है, वह चारित्र विनय
है।
उपचार विनय :
विनय करने के योग्य आदरणीय पुरुषों को देखकर उठना, उन्हें बैठने के लिए आसन देना, उनके आगे हाथ जोड़ना, उनके उपकरण लेना, पैर थोना, अङ्ग दबाना आदि उपचार विनय है ।