Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

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Page 82
________________ 73 तीसरा अध्याय बिना यत्न के ही साधता है 123 और उत्कृष्ट वैराग्य को प्राप्त कर अपूर्व करण नामक आठवें गुणस्थान का धारण करता है 124 । वह मुनि प्राप्त ऋद्धियों में सर्वस्व नही रहता है 125 तथा उन श्रद्वियों पर विजय प्राप्त करके सभी भावों में भी दुलर्भ यथाख्यात चारित्र को तीर्थंकर के समान प्राप्त करता है 126 पृथक्त्व विर्तक सविचार और एकत्व विर्तक अविचार नामक शुल्क ध्यान के बल से आठ कर्मों के नायक मोहनीय कर्मों को जड़ से नष्ट कर डालता है127। वह क्रमशः अनन्तानुबंधी - क्रोध, मान, माया - लोभ कषायों, मिथ्यात्व मोह, सम्यक्तव-मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अप्रत्याख्यान कोध, मान - माया - लोभ प्रत्याख्यान नुपंसक - स्त्री-पुरुष वेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, संज्वलन क्रोध - मान-माया - लोभ को क्षय कर वीतरागता को प्राप्त करता है 1 28 । इस प्रकार समस्त मोह को नष्ट एवं क्लेशों को दूर करके मुनि सर्वज्ञ की तरह न दिखाई देनेवाले राहु के भाग से छूटे हुए पूर्णचन्द्र के समान सुशोभित होता है। जिस प्रकार सर्वज्ञ ज्ञानावरणादि कर्मों से युक्त हुआ मुनि राहु के ग्रहण से मुक्त पूर्णिमा के चन्द्र सदृश सुशोभित होता है 129 | वही मुनि अन्तर्मुहूर्त काल तक छद्मस्थ वीतराग रहकर एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म को क्षय करके नित्यं, अनन्त, निरतिशय, अनुपम, अनुत्तर सम्पूर्ण और अप्रतिहत केवलज्ञान को प्राप्त करता है 130 । जब मुनि मोह, ज्ञानावरण आदि घातिया कर्मों का क्षय कर देता है तो उसके शरीर बनाये रखने के कारण वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र - चार अघातिया कर्म शेष रह जाते है। इन चारो कर्मों का अनुभव करता हुआ केवल ज्ञानी जघन्य में दो घड़ी तक और उत्कृष्ट से आठ वर्ष क्रम एक पूर्व को त्रिकाल तक भव्य जीवों को धर्मोपदेश करता हुआ विहार करता है 131 । अन्तिम भव की आयु अभेद्य होती है, क्योंकि इसका अपवर्तन नहीं होता और इस आयु से उपगृहीत वेदनीय कर्म भी उसी समान अभेद्यव होता है तथा नाम - गोत्र कर्म भी उसी के समान अभेद्य होते हैं 132 । किन्तु जिस केवली के वेदनीयादिक कर्म आयुकर्म से अधिक स्थिति के होते हैं, वे उनको बराबर करने के लिए समुद्धात करते है । जब केवली समुद्धात ^ से निवृत्त होते हैं तब वे मुनियों के योग्य योग धारण करते हुए मन-वचन-काय-रुप योग का निरोध करते हैं 133 । काय निरोध करते ही उन्हें क्रमशः सूक्ष्म-क्रिय-अप्रतिपाति शुक्ल ध्यान होता है जिसके द्वारा वे अवशिष्ट कर्म प्रकृतियों को क्षय कर देते हैं 34 । अन्तिम भव में जिस केवली का जितना आकार और जितनी उँचाई होती है, उससे उसके शरीर का आकार और उँचाई एक तिहाई कम हो जाती है 135 । वे केवली उत्कृष्ट प्रशमसुख को प्राप्त करके क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञान ओर केवल दर्शनरूप स्वभाव से युक्त हो जाते हैं 136 1 वे शरीर रुपी बन्धन को त्याग कर और अष्ट कर्मों को क्षय करके मनुष्यलोक में नही ठहरते, क्योंकि यहाँ ठहरने का न तो कोई कारण है न आश्रय और न कोई व्यपार है 137 | वे नीचे भी नही जाते, क्योंकि इसमें गौरव का अभाव है। वे जहाज आदि की तरह लोकान्त से आगे भी नहीं जाते, क्योंकि वहाँ सहायक धर्म द्रव्य का अभाव है। योग और क्रिया के अभाव होने से वह तिरछा भी गमन नहीं करता है। अतः मुक्त सिद्ध जीव

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