Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

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Page 100
________________ 91 मान कषाय : चतुर्थ अध्याय मैं ही ज्ञानी, दानी, शूरवीर हूँ, इत्यादि रुप आत्म परिणाम को मान कहते हैं। इसे घमंड भी कहा जाता हैं। मान, श्रुत, शील और धर्ममूल विनय के दूषण रुप तथा धर्म, और काम के विघ्न रुप है21 | माया कषाय : किसी वस्तु में ममत्व भाव माया है। यह विश्वास घातक सर्प की तरह है 22 | 7 लोभ कषाय : तृष्णा को लोभ कहते हैं। यह विनाश का आधार हैं । यह समस्त व्यसनों का राजमार्ग है, जिस पर चलनेवाला मनुष्य अत्यन्त दुःखदायी होता है 23 | इस प्रकार दुःखों के कारणभूत क्रोध, मान, माया और लोभ भयानक संसार के मार्ग प्रवर्त्तक हैं। तात्पर्य यह है कि हिंसा, झूठ आदि पापों को करना संसार का मार्ग है और कषाय के वशीभूत प्राणि इन पापों को करता है । अतः कषाय संसार को बढ़ाने वाला है 24 । प्रशमरति प्रकरण के दूसरे अधिकार में कर्म-बंध के अन्य हेतुओं- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और योग का वर्णन किया गया है तथा मिथ्यात्व आदि को राग-द्वेष की सेना माना गया है। इनका विस्तारपूर्वक वर्णन निम्न प्रकार प्रस्तुत किया गया है 5 : मिथ्यादर्शन : मिथ्या दर्शन का अर्थ विपरीत श्रद्धान् होता है। दूसरे शब्दों में, सम्यक् दर्शन के विपरीत भाववाला मिथ्यादर्शन होता है। सम्यक् दर्शन से तत्वों का पर्याय श्रद्धान् होता है । परन्तु मिथ्यादर्शन के कारण तत्वों का यथार्थ श्रद्धान् नहीं होता है 26 | अविरति : विरति का अभाव अविरति है । हिंसा, असत्य, स्तेयं, अब्रह्मचर्य, परिग्रह से विरत होना विरति है और इन पाँच पापों को नहीं छोड़ना अविरति है 27 | प्रमाद :... प्रमाद का अर्थ है- उत्कृष्ट रुप से आलस्य का होना । निद्रा और स्नेह की अपेक्षा से प्रमाद पाँच प्रकार का होता है 28 । विषय, इन्द्रिय, निद्रा और विकथा" की अपेक्षा से प्रमाद के चार भेद बतलाये गये हैं 30 ।

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