Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

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Page 85
________________ प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन 76 गमन का तो त्याग करता है, पर वेश्वागमन का त्याग नहीं करता, क्योंकि वह किसी की परिगृहीत स्त्री नहीं हैं अतः स्थूलब्रह्म का त्याग ही ब्रहमचर्याणुव्रत हैं147 । अपरिग्रहाणुव्रत : यह श्रावक का पांचवा अणुव्रत है। अपरिग्रहाणुव्रत का अर्थ है- अपरिग्रह व्रत का एक देश पालन करना। इसके स्वरुप का कथन कर बतलाया गया है कि सर्वदा विषयों में प्रीति करने का और व्रतपालन आदि क्रियाओं में द्वेष करने का त्याग करना अपरिग्रहाणुव्रत हैं। इस व्रत को इच्छा-परिमाण भी कहते हैं। अर्थात् खेत, मकान, आदि की इच्छा का परिमाण करना कि इतने मकान, खेत, इतना सोना-चाँदी, धन-थान्य आदि रखने का मैं नियम करता हूँ - यह इच्छा परिमाण या अपरिग्रहाणुव्रत है। इस व्रत का पालन करनेवाला श्रावक संयमित हो जाता है 1481 दिग्वत: श्रावक का छठवाँ व्रत दिग्वत है। यह अहिंसा आदि पाँच मूल गुणों को बढ़ाता है। इसलिए इसे गुण व्रत कहा जाता है। प्रशमरति प्रकरण में दिग्वत के स्वरुप का कथन किया गया है और बतलाया गया है कि हिंसा तथा आरम्भ आदि को कम करने के अभिप्राय से जीवन पंत के लिए दशो दिशाओं में आवागमन की सीमा निश्चित करना दिग्वत है। अर्थात् चारों दिशाओं में तथा उपर-नीचे जाने का परिमाण करना कि मैं अमुक दिशाओं मैं अमुक स्थान तक ही जाउँगा, उससे आगे नहीं जाउँगा, यह दिग्वत है। यह व्रत श्रावक के लिए उपादेय है 149। देशव्रत : यह श्रावक का सातवाँ व्रत है। इसे गुण व्रत के नाम से जाना जाता है। यह गुण व्रत का दूसरा भेद है। प्रशमरति प्रकरण में देशव्रत के स्वरुप पर प्रकाश डालते हुए बतलाया गया है कि दिग्वत के भीतर समय की मर्यादा के साथ छोटी सीमा निश्चित करना, देशव्रत है। अर्थात् दिग्व्रत के द्वारा परिमित देश में प्रतिदिन जो गमनागमन की मर्यादा की जाती है, अमुक-अमुक स्थान तक जाउँगा, उसे देशव्रत कहते हैं 1501 अनर्थदण्ड व्रत : श्रावक का आठवाँ व्रत अनर्थदण्डव्रत है। यह भी गुणव्रत है। यह अहिंसा आदि पाँच मूल गुणों में वृद्धि करता है। प्रशमरति प्रकरण में अनर्थदण्ड के स्वरुप का कथन करते हुए बतलाया गया है कि मन, वचन और काय के निरर्थक व्यापार का त्याग करना, अनर्थदण्ड व्यापार कहलाता है। अर्थात् बिना प्रयोजन मन-वचन-काय की प्रवृत्ति करने को अनर्थदण्ड कहते हैं। इसके अनेक भेद है और इसके त्याग को अनर्थदण्ड व्रत कहते हैं। यह व्रत भी श्रावक के लिए आचरणीय हैं1511

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