Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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तीसरा अध्याय हैं। अनन्त विशुद्ध परिणामी जीव को शुक्ल ध्यान होता है 87।
इसके चार भेद हैं: (क) पृथक्त्व वितर्क विचार (ख) एकत्व वितर्क अविचार (ग) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति (घ) व्युपरत क्रियानिवृत्ति 88 । पृथक्त्व विर्तक विचार : __ शान्त मोह अर्थात् ग्यारहवें गुण स्थानवर्तीजीव, तीन योगों के द्वारा अनेक भेदों से युक्त द्रव्यों का जो ध्यान करता है, वह पृथक्त्व वितर्क विचार नामक शुक्ल ध्यान है । चूँकि वितर्क का अर्थ ध्रुत है और चौदह पूर्वो में प्रतिपादित अर्थ को शिक्षा से युक्त मुनि इसका ध्यान करता है, इसलिए यह ध्यान सविर्तक कहलाता है । अर्थ, शब्द और योगों का संक्रमण-परिवर्तन विचार माना गया है । इस ध्यान में उक्त लक्षणवाला विचार रहता है । इसलिए यह ध्यान सविचार होता है। एकत्व वितर्क अविचार :
क्षीण मोह अर्थात् बारहवें गुण स्थान में रहनेवाला मुनि तीन में से किसी एक योग के द्वारा एक द्रव्य का जो ध्यान करता है, वह एकत्व वितर्क अविचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान है । इसमें विचार का सद्भाव नहीं है, इसलिए यह अविचार होता है। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति : ___ जो ध्यान वितर्क और विचार से रहित है तथा सूक्ष्मकोय योग के अवलम्बन से होता है, वह सूक्ष्मक्रिय नामका शुक्ल ध्यान है । यह समस्त पदार्थों को विषय करनेवाला है । अत्यन्त सूक्ष्म काय योग में विषमान केवली भगवान इस प्रकार के काय योग को रोकने के लिए इस शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हैं 911 व्युपरत क्रिया निवृत्ति :
जो वितर्क और विचार से रहित है तथा जिसमें योगों का बिल्कुल निरोध हो जाता है, वह व्युपरत किय निवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान है। जब केवली शैलशी करते हैं, उस समय उनके आत्म प्रदेशों की अवगाहना शरीर-अवगाहना से एक तिहाई हीन हो जाती हैं क्योंकि शरीर में मुख, नाक, कान आदि में जो छिद्र हैं, वे पूरित हो जाते हैं जिससे आत्मा के प्रदेश घनीभूत हो जाते हैं। अतः आत्मा के प्रदेशों की अवगाहना मुक्त शरीर की अवगाहना से त्रिभागहीन रह जाती है। इसके पश्चात् सकल योग का निरोथ होने पर व्युपरत सकल क्रिय नामक चौथा शुक्ल ध्यान होता है 92 ।
इस प्रकार मुनि आदि के दो शुक्ल ध्यानों को प्राप्त कर अष्ट कर्मों के नायक मोहनीय कर्म को जड़ से नष्ट कर डालता है 93 | और शेष ध्यानों द्वारा वे समस्त अवशिष्ट कर्म