Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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तीसरा अध्याय (२) नो इन्द्रिय संलीनता :
आत-रौद्र ध्यान, और क्रोधादि को उत्पन्न न होने देना और यदि उत्पन्न हो जावे तो उसे विफल कर देना नो इन्द्रिय संलीनता है.68। आभ्यान्तर तप :
तप का दूसरा भेद आभ्यान्तर तप है। यह बाह्य तप के विपरीत है। आभ्यान्तर तप का अर्थ है-भीतर का तप, जिसका केवल स्वयं अनुभव किया जाता है। ___ आभ्यान्तर तप के भी छह भेद किये गये हैं- प्रायश्चित, ध्यान, वैयावृत्य, विनय, उत्सर्ग एवं स्वाध्याय । प्रायश्चित :
जो अपने किये हुए दोषों को दूर करने के लिए आलोचना आदि की जाती है, उसे प्रायश्चित आभ्यन्तर तप कहते हैं 70। इसके नव भेद है:71 आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, तप, व्युत्सर्ग, विवेक, उपस्थापना, परिहार और छेद।
ध्यान : ____किसी वस्तु में मन को एकाग्र करना, ध्यान आभ्यान्तर तप हैं 721 ध्यान चार प्रकार के होते हैं। आतथ्यान, रोद्रध्यान, थर्मध्यान, शुक्लध्यान। आर्तध्यान :
ऋत दुःख अथवा संक्लेश को कहते हैं, उससे जो ध्यान होता है, वह आर्त ध्यान है73। इसके भी चार भेद हैं- (क) अप्रिय वस्तु का सम्बन्ध होने पर उसके वियोग के लिए चिन्ता करना (ख) सिर दर्द आदि की पीड़ा को दूर करने के लिए चिन्ता करना (ग) प्रिय वस्तु का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए चिन्ता करना और (घ) चन्दन, खत आदि के लगाने से उत्पन्न हुए सुख का वियोग न होने के लिए चिन्ता करना 74 | रौद्र ध्यान :
क्रूर अथवा निर्दय को रुद्र कहते हैं, उसका जो ध्यान होता है, वह रौद्र ध्यान है 751 इसके भी चार भेद हैं- (क) हिंसा में आनन्द अनुभव करना (ख) झूठ बोलने में आनन्द अनुभव करना (ग) चोरी करने में आनन्द करना और (घ) परिग्रह-संचय में आनन्द अनुभव करना । धर्मध्यान :
धर्म युक्त ध्यान को धर्मध्यान कहते है। अर्थात् धर्म विषयक एकाग्र चिन्तन करना