Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

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Page 73
________________ 64 प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन अनशन : एक उपवास से छह उपवास तक खान-पान का त्यागना अनशन है और भत्स प्रत्याख्यान, इंगिनीभरण तथा पादपोपगमन में जो जीवन पर्यंतखान-पान का त्याग किया जाता है, वह भी अ ' 'न तप है। इसमें मुनि एक दो तीन आदि ग्रास के क्रम से आहार को घटाते हुए एक ग्रास तक ले जाते हैं। उनोदर : बत्तीस कौर से यथाशक्ति कम आहार करना, उनोदर बाह्य तप है61 । वृत्तिसंक्षेप : वृत्ति का अर्थ आहार होता है। आहार से संबंधित नाना प्रकार के नियम जिसमें किये जाते हैं, उसे वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप कहा जाता है। अर्थात् भिक्षा को परिमित करने के लिए घर आदि का परिमाण करना कि आज मैं इतने घरों से भिक्षा ग्रहण करूँगा, वृत्तिसंक्षेप बाह्य तप है 621 रसत्याग : दूध, दही, घी, गुड़ आदि रसों के त्याग को रस त्याग कहते हैं 63 । अर्थात् तेल, दूध, अक्षुरस (गुड़-शक्कर आदि) दही और घी - इन पाँच प्रकार के रसों में एक दो तीन चार या पाँच रसों का त्याग करनेवाले मुनि को रस परित्याग नामक तप होता है। काया क्लेश : कायोत्सर्ग, उत्कटुकासन, आतापन आदि के द्वारा शरीर को क्लेश देने को कायक्लेश कहते हैं। अर्थात् अनेक प्रकार के प्रतिमायोग थारण करना नाना आसनों से ध्यानस्थ होना, मौन रहना, शीत की बाधा सहना तथा धूप में बैठना इत्यादि कायक्लेश तप माना गया है64 । संलीनता : __ आगम का उपदेश करना संलीनता तप है65 | इसके दो भेद हैं66 (9) इन्द्रिय संलीनता और नो इन्द्रिय संलीनता। (१) इन्द्रिय संलीनता : जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकोच लेता है, उसी प्रकार साधु राग-द्वेष के कारण शब्द आदि से अपनी इन्द्रियों को संकोच लेता है, इस प्रकार के इन्द्रिय-संकोच को इन्द्रिय संलीनता कहते हैं 671

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