Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

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Page 26
________________ 17 प्रथम अध्याय ___ आचार्य हरिभद्र सूरि नाम के विभिन्न आचार्यों के होने की संभावना है। लेकिन प्रशमरति प्रकरण के टीकाकार षड्दर्शन समुच्चय के रचयिता आचार्य हरिभद्र सूरि ही है जिनका समान्य परिचय निम्न प्रकार है :- . आचार्य हरिभद्र का जन्म राजस्थान के चित्रकूट- चित्तौड़ नगर में हुआ था। इनके माता का नाम गंगा और पिता का नाम शंकर था। ये जाति के ब्राह्मण थे और अपने अद्वितीय पांडित्य के कारण वहां के राजा जितारि के राजपुरोहित थे। इसके बाद याकिनी साध्वी के उपदेश से जैन धर्म में दीक्षित हुए। ये श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्याधर गच्छ के शिष्य थे और इनके गच्छपति आचार्य का नाम जिनजटकट, दीक्षा गुरु का नाम जिनदत्त तथा धर्म माता साध्वी का नाम याकिनी महत्तरा था। दीक्षोपरांत जैन साधु के रुप में इनका जीवन राजपूताना और गुजरात में विशेष रुप से व्यतीत हुआ 53। .. आचार्य हरिभद्र के जीवन प्रवाह को बदलनेवाली घटना उनके धर्म-परिवर्तन की है। इनकी यह प्रतिज्ञा थी कि जिसका वचन न समझूगा, उसी का शिष्य हो जाउँगा। एक दिन राजा का मदोन्मत्त हाथी खूटे को उखाड़कर नगर में दौडने लगा। आचार्य हरिभद्र हाथीसे बचने के लिए एक जैन उपाश्रय मे चले गये। वहाँ याकिनी महत्तरा नाम की साध्वी को निम्न गाथा का पाठ करते हुए सुना चक्की दुगं हरिपणगं पणनं चक्कीण केसवो चक्की। केसव चक्की केसव दु चक्की केसव चक्की य। 54 इस गाथा का अर्थ उनकी समझ में नहीं आया और इन्होंने साध्वी से उसका अर्थ पूछा। साध्वी ने गच्छपति आचार्य जिनदत्त के पास भेज दिया। आचार्य से अर्थ सुनकर वे वहीं दीक्षित हो गये और बाद में विद्वत्ता तथा श्रेष्ठ आचार के कारण आचार्य ने इनको ही अपना पट्टधर आचार्य बना दिया। जिस याकिनी महत्तरा के निमित्त से हरिभद्र ने धर्म परिवर्तन किया था, इसको इन्होंने अपनी धर्म माता के रुप में पूज्य माना और अपने को याकिनी सूनु कहा । काल-निर्णय : आचार्य हरिभद्र का समय अनेक प्रमाणों के आधार पर वि०सं० 884 माना गया है 551 अतः हरिभद्र सूरि वि०सं० 884 (ई० 827) के आस-पास में हुए मल्लवादी के सम-सामयिक विद्वान् थे। कुवलयमाला के रचयिता उघोतन सूरि ने हरिभद्र को अपना गुरु बतलाया है और कुवलयमाला की रचना ई० सन्778 में हुई है। मुनि जिन विजय जी ने आचार्य हरिभद्र का समय ई० सन् 700-770 माना है, पर हमारा विचार है कि इनका समय ई० सन् 800 - 830 के मध्य होना चाहिए। इस समय-सीमा को मान लेने पर भी उघोतनसूरि के साथ गुरु-शिष्य का सम्बन्ध स्थापित हो,सकता हैं।

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