Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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प्रशमरति प्रकरण का समालोचनात्मक अध्ययन
58 अन्यत्व-भावना :
मैं अपने कुटुम्बियों, धन-धान्य, सोना, चाँदी आदि तथा शरीरादि से भिन्न हूँ, ऐसा विचारने को अन्यत्व भावना कहते है 11 । अर्थात् जिसकी बुद्धि में रात-दिन यही विचार बना रहता है कि मैं माता, पिता, पत्नी, पुत्र आदि कुटुम्बियों, दास-दासी आदि परिजनों, धन-धान्य, सोना, चाँदी, वस्त्र आदि वैभव एवं भोग-उपभोग के आश्रय से भी भिन्न हूँ, जिसे शोक रुपी कलिकाल कष्ट नहीं देता। अतः अन्यत्व भावना मोक्ष के लिए अत्यावश्यक है12 ।
अशुचित्व भावना :
रज-वीर्य एवं मज्जादि से बना हुआ शरीर अपवित्रता का घर है, ऐसा चिन्तन करने को अशुचित्व भावना कहते हैं 13 | इस शरीर में पवित्र पदार्थों को भी अपवित्र कर देने की शक्ति हैं। जैसे कपूर, चन्दन, अगुरु, कैसर आदि सुगन्धित द्रव्य शरीर में लगाने से दुर्गन्धित हो जाते हैं। शरीर का आदि कारण रज और वीर्य है, क्योंकि प्रारम्भ में इन्हीं के मिलने से शरीर बनना शुरु हुआ है। फिर बाद में माता जो भोजन करती है, उस भोजन का रस हरेणी में आती है जिससे शरीर बनता है। वह शरीर चर्म से आवरित है। इसके अन्दर खून, माँस, चर्बी, और हड्डियाँ भरी हुई हैं जो नसों के जाले से वेष्टित हैं। इसमें कहीं भी शुचिपना नहीं है, इस प्रकार का विचार करने से अशुचिपना बढ़ता ही जाता है 14 ।
संसार-भावना:
संसार में जीव माता होकर दूसरे भव में बहिन या पत्नी भी हो जाता है, तथा पुत्र होकर पिता, माता और शत्रु तक हो जाता है, इस प्रकार के संसार स्वरुप के चिन्तन को संसार-भावना कहते है 15। कहने का आशय यह हुआ कि जीव अपने कर्मों के कारण भव परिणमन करता हुआ माता, पिता, भाई होकर भी शत्रु हो जाता है। इस प्रकार के भाव को जानकर एक से राग और दूसरे से द्वेष करना व्यर्थ है 16।
आसव-भावना :
आसव के द्वारों के खुले रहने पर कर्मों का आगमन होता रहता है, जिन्हें बंद संबंधी विचारना को कर्मासव भावना कहते हैं। जो प्राणि मिथ्या दृष्टि, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग में अभिरुचि रखता है, उस जीव को कर्मों का आस्रव होता हैं, क्योंकि मिथ्यादर्शनादि कर्माश्रव के प्रमुख कारण हैं। अतः मुनि को आसव के कारण को जानकर उसे रोकने का विचार करना चाहिए 171 संवर-भावना : ___ आश्रव के द्वारों के बन्द हो जाने पर कर्मों का आश्रव रुक जाता है, ऐसा विचारने को संवर-भावना कहते हैं। मन, वचन, और काय के जिस व्यापार से पुण्य कर्म का आनव नहीं