Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ 61 तीसरा अध्याय (क) जाति मद : ब्राह्मणादि जाति में जन्म लेने का मद करना, जाति मद है। जैसे जीव अपने जाति मद के कारण नारकी होकर तिञ्च - मनुष्यादि योनियों में चक्कर काटता रहता है। अतः जाति मद हेय है, क्योंकि यह स्थायी नहीं होता है 341 (ख) कुलमद : ___ उत्तम कुल में जन्म लेने का मद करना, कुल मद है। इससे मनुष्य का शील दूषित होता है और दुःशील मनुष्य का गर्व दुःशीलता को बढ़ाता है। अतः यह शीलवान् के लिए त्याज्य है 351 (ग) रुपमद : रुप-सौन्दर्य का मद करना, रुप मद है। यह रुप और वीर्य से उत्पन्न होता है और सदैव बढ़ता रहता है। यह रोग और जरा का घर है। यह नित्य ही संस्कार करने योग्य है। यह धर्म और मांस से ढ़का हुआ, मल से युक्त तथा नियम से नश्वर है। इसलिए यह त्याज्य बल का मद ... ___ बल का गर्व करना बल-मद है। वास्तव में बर स्थायी चीज नहीं हैं, क्योंकि बलवान् मनुष्य भी क्षणभर में बलहीन और निर्बल मनुष्य भी वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से बलवान हो जाते हैं। परन्तु, मांस के सामने आने पर सब बल बेकार हो जाता है। अतः बल का मद करना अनिष्टकर है । लाभमद : लाभ का गर्व करना लाभमद है। लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से लाभ होता है और लाभान्तराय कर्म के उदय से कुछ भी लाभ नहीं होता । अतः लाभ और अलाभ अनित्य है। यदि साधु को आहारादि का लाभ या अलाभ हुआ, इन दोनों स्थिति में समभाव रखना हितकर है। इसलिए लाभमद हेय है 38 | बुद्धि का मद : ___ बुद्धि का मद करना बुद्धि-मद है। यहाँ बुद्धि का अर्थ ज्ञान है। ज्ञान असीम, अनन्तसागर के समान है। इसलिए इसका पार पाना बहुत कठिन है। अतः ज्ञान का मद बेकार है 391 प्रिय-मद : प्रिय होने का गर्व करना प्रिय-मद है। उपकार के निमित्त दीन मनुष्यों के समान दूसरे

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136