Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan
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तीसरा अध्याय (क) जाति मद :
ब्राह्मणादि जाति में जन्म लेने का मद करना, जाति मद है। जैसे जीव अपने जाति मद के कारण नारकी होकर तिञ्च - मनुष्यादि योनियों में चक्कर काटता रहता है। अतः जाति मद हेय है, क्योंकि यह स्थायी नहीं होता है 341
(ख) कुलमद : ___ उत्तम कुल में जन्म लेने का मद करना, कुल मद है। इससे मनुष्य का शील दूषित होता है और दुःशील मनुष्य का गर्व दुःशीलता को बढ़ाता है। अतः यह शीलवान् के लिए त्याज्य
है 351
(ग) रुपमद :
रुप-सौन्दर्य का मद करना, रुप मद है। यह रुप और वीर्य से उत्पन्न होता है और सदैव बढ़ता रहता है। यह रोग और जरा का घर है। यह नित्य ही संस्कार करने योग्य है। यह धर्म और मांस से ढ़का हुआ, मल से युक्त तथा नियम से नश्वर है। इसलिए यह त्याज्य
बल का मद ... ___ बल का गर्व करना बल-मद है। वास्तव में बर स्थायी चीज नहीं हैं, क्योंकि बलवान् मनुष्य भी क्षणभर में बलहीन और निर्बल मनुष्य भी वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से बलवान हो जाते हैं। परन्तु, मांस के सामने आने पर सब बल बेकार हो जाता है। अतः बल का मद करना अनिष्टकर है ।
लाभमद :
लाभ का गर्व करना लाभमद है। लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से लाभ होता है और लाभान्तराय कर्म के उदय से कुछ भी लाभ नहीं होता । अतः लाभ और अलाभ अनित्य है। यदि साधु को आहारादि का लाभ या अलाभ हुआ, इन दोनों स्थिति में समभाव रखना हितकर है। इसलिए लाभमद हेय है 38 | बुद्धि का मद : ___ बुद्धि का मद करना बुद्धि-मद है। यहाँ बुद्धि का अर्थ ज्ञान है। ज्ञान असीम, अनन्तसागर के समान है। इसलिए इसका पार पाना बहुत कठिन है। अतः ज्ञान का मद बेकार है 391 प्रिय-मद :
प्रिय होने का गर्व करना प्रिय-मद है। उपकार के निमित्त दीन मनुष्यों के समान दूसरे