Book Title: Prashamrati Prakaran Ka Samalochanatmak Adhyayan
Author(s): Manjubala
Publisher: Prakrit Jain Shastra aur Ahimsa Shodh Samthan

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Page 34
________________ (दूसरा अध्याय) तत्व मीमांसा तत्व मीमांसा : दार्शनिक जगत में तत्व की अवधारणा अत्यधिक महत्वपूर्ण मानी गयी है। प्रारम्भ से ही भारतीय और यूरोपीय दार्शनिकों ने इस पर अपने-अपने दृष्टिकोण से गहराईपूर्वक अनुचिन्तन किया है। यदि हम अपने कथन के क्षेत्र को थोड़ा और व्यापक करें तो हम कह सकते हैं कि वैज्ञानिकों ने भी इसे अपनी गवेषणा का विषय बनाया है। दर्शन का प्रारम्भ तत्व चिन्तन से ही होता है। जैन वाङ्गमय का अनुशीलन करने से ही उपरोक्त कथन की पुष्टि होती है। जैन धर्म में मान्य चौबीस तीर्थंकरों का उपदेश भी तत्व स्वरुप मूलक रहा है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जैन वांगमय में तत्व-विवेचन सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में और इसके बाद संस्कृत भाषा में उपलब्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द कृत पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, उमास्वामी कृत तत्वार्थसूत्र पूज्यपाद रचित सर्वार्थसिद्धि और भट्टाकलंक देव रचित तत्वार्थवार्तिक आदि तत्व विषयक ग्रन्थों में तत्व का विशुद्ध विवेचन किया गया है। तत्व शब्द के लिए जैन दर्शन में विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है और सत्ता, तत्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, पदार्थ, वस्तु, अर्थ एवं तत्व को एकार्थवाची शब्द माना गया है । (क) तत्व - विमर्श : . - प्रशमरति प्रकरण भी एक तत्व-विषयक ग्रन्थ के रुप में प्रसिद्ध है। इसमें तत्व की चर्चा प्रमुख रुप से की गई है। प्रशमरति प्रकरण मे तत्व की परिभाषा देते हुए बतलाया गया हैं कि जीवादि पदार्थों से दूसरे के आग्रह के बिना, परमार्थ से सत्यता की जो प्रतीति होती है, वह तत्व कहलाता है । प्रशमरति प्रकरण में तत्व के नौ भेद किये गये हैं। - जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रव,

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