Book Title: Prakrit Vidya 2000 01 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti Trust View full book textPage 9
________________ "गुण-शीलानि सर्वाणि, धर्माश्चात्यन्तनिर्मल: । सम्भाव्यते परं ज्याति: ज्योतिस्तदेकमनुतिष्ठतः ।।" -(पद्मनन्दि-पंचविंशतिः, एकत्वभावना, 42) अर्थ:- जो साधक यति उस चैतन्यज्योतिस्वरूप आत्मतत्त्व का ध्यान करता है, वही चौरासी लाख उत्तरगुणों का एवं अट्ठारह हजार प्रकार के शीलव्रतों का धारक है। उसी यति के निर्मल ध्यान होता है— ऐसा निश्चय से जानना चाहिये। इसीलिये सिद्धों के ध्यान को 'व्यवहार सामायिक' एवं सिद्धसमान निज शुद्धात्मतत्त्व के ध्यान को 'निश्चय सामायिक' कहा गया है "सिद्धसरूवं झायदि, अहवा झाणुत्तमं ससंवेदं । खणमेक्कमविचलंणो, उत्तम-सामाइयं तस्स ।।" -(आ० वसुनन्दि, तच्चवियारो, 8/166) अर्थ:- जो भव्यात्मा सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का ध्यान करते हैं, उसे 'सामायिक' कहा गया है। किंतु यदि वह क्षण भर के लिए भी अविचल (एकाग्रचित्त) होकर स्वसंवेदन ध्यान करता है, तो उसके उत्तम सामायिक' होती है। इस प्रकार से जब एकाग्र-चिन्तानिरोध की स्थिति होती है, उसी स्थिति को 'शुद्धात्मा' संज्ञा दी गयी है "एकाग्रचिंतानिरोधसमये शुद्धात्मा स्यात् ।” –(आ० अमृतचन्द्रसूरि, पवयणसारो, गा० 191 की टीका) ऐसे आत्मध्यान करनेवाले 'स्ववश' साधक जीव को 'जिनेन्द्र भगवान् से 'किंचित् न्यून' कहा गया है— “स्ववशो जीवनमुक्त: किंचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेषः।" -(णियमसारो, गा० 243 की टीका) ऐसे स्वात्मनिष्ठ साधक जीव ही कायोत्सर्ग' तप या 'व्युत्सर्ग तप' को वस्तुत: कर पाते हैं- “कायादी परदव्वे थिर भावं परिहरित्तु अप्पाणं । तस्स हवे तणुसग्गं जो झायदि णिव्विदप्पेण ।।" -(णियमसारो, गा० 121) - अर्थ:- शरीर आदि परद्रव्यों में स्थिरता का या आसक्ति का भाव छोड़कर जो निर्विकल्प होकर आत्मा का ध्यान करता है, उसे ही निश्चय से 'कायोत्सर्ग' की प्राप्ति होती है। आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द ने ऐसे 'कायोत्सर्ग' को मोक्षमार्ग का उपकारक' एवं 'घातिया कर्मों का विनाशक बताया है “काउस्सग्गं मोक्खपहे देहसमं घादिकम्म अदिचारं। इच्छामि अहिट्ठादुं जिणसेविद देसिदत्तादो।।” –(मूलाचार, 7/651) अर्थ:- यह 'कायोत्सर्ग' मोक्षमार्ग का उपकारक है, घातिया कर्मों का विनाशक भी प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000 007Page Navigation
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