Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ अर्थ:- असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत — इन चार गुणस्थानों (चौथे से सातवें तक) में विद्यमान भव्यात्माओं को 'धर्मध्यान का स्वामी' माना गया है। वस्तुत: आत्मध्यान के द्वारा ही मिथ्यात्व का क्षय करके जीव संसारमार्ग से हटकर जीवन में मोक्षमार्ग की शुरूआत करता है। अन्य किसी का ध्यान करने से मिथ्यात्व की हानि संभव ही नहीं है। इस तथ्य को पुष्ट करते हुए आचार्य वादीभसिंह सूरि सांकेतिक शैली में लिखते हैं___“ध्याता गरुडबोधेन, न हि हन्ति विषं बकः।" -(क्षत्रचूड़ामणि, 6/23) । अर्थ:- जैसे गरुड़ के ध्यान से ही सर्प का विषय उतर सकता है, न कि बगुले के ध्यान से; उसीप्रकार आत्मध्यान से ही अनादि मिथ्यात्वरूपी विष उतर सकता है, अन्य किसी परपदार्थ के ध्यान से नहीं। अरिहंतादि को जो 'सम्यग्दर्शन का निमित्त' कहा गया है, वह भी इसी दृष्टि से कहा गया है कि वे स्वयं निरन्तर आत्मध्यान में लीन 'आदर्श' प्रतिमान हैं। वस्तुत: तो उनसे प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्राप्त कर जीव स्वयं आत्मध्यान करता है, उसी के द्वारा 'सम्यग्दृष्टि' बनता है। इस तथ्य को परमपूज्य आचार्य कुन्दकुन्द इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं “अप्पा अप्पम्मि रदो सम्मादिट्ठी फुडो जीवो।" – (भावापाहुड, गाथा 31) अर्थ:- आत्मा अपने आत्मस्वरूप में निरत (लीन) होता हुआ ही वस्तुत: सम्यग्दृष्टि होता है। अत: कहा जा सकता है कि 'आत्मादर्शन' ही 'सम्यग्दर्शन' है, जिसे मोक्ष-महल की । प्रथम सीढ़ी' कहा गया है। इसके बिना तो मोक्षमार्ग की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इसीलिए आचार्य माघनन्दि ने 'आत्मा को ही निश्चय से शरण' कहा है__"निमित्तं शरणं पञ्चगुरवो गौण-मुख्यता। शरण्यं शरणं स्वस्य स्वयं रत्नत्रयात्मकम् ।।" -(शास्त्रसार-समुच्चय, पद्य 10, पृष्ठ 298) अर्थ:- व्यवहार से पंचपरमेष्ठी निमित्तरूप से शरण कहे गये हैं तथा निश्चय से रत्नत्रयात्मक निजात्मतत्त्व ही अपने लिए शरणभूत है। चतुर्थ गुणस्थानवाले अविरत सम्यग्दृष्टि के लिए यह आत्मध्यान अत्यन्त सूक्ष्मकाल के लिए होता है, जबकि देशविरत गुणस्थान वाले जीव के लिए इससे कुछ अधिक और छठवे-सातवें गुणस्थानों में झूलने वाले महाव्रतियों के लिए इसका काल और अधिक हो जाता है तथा वे नियमत: अन्तमुहूर्त मात्र काल में आत्मानुभूति करते ही रहते हैं। अत: इस आत्मध्यान में ही सम्पूर्ण श्रेष्ठताओं को समाहित माना गया है 006 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 120