Book Title: Prakrit Vidya 2000 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 6
________________ [सम्पादकीय मिथ्यात्व-रहित सभी एकदेशजिन हैं -डॉ० सुदीप जैन शौरसेनी प्राकृत के आगम-ग्रन्थों में आत्मसाधना के उच्चतम मानदण्ड निदर्शित हैं। परमज्ञानी आचार्यों ने अपनी साधना से सत्यापित करके आगम के तथ्यों की प्रस्तुति विविध ग्रन्थों में भी की है। इन्हीं आगम-ग्रन्थों के तत्त्वज्ञान को अपने दृष्टिपथ में सुस्थापित करनेवाले श्रमणों को ज्ञानियों ने 'आगमचक्खू साहू' कहा है। आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान ही जैनश्रमणों की वह विशिष्ट पूंजी है, जिसके कारण चिरकाल से जैनेतरों के द्वारा वे स्तुत्य भी रहे हैं और ईर्ष्या के पात्र भी रहे हैं। अध्यात्मविद्या मूलत: श्रमणविद्या है। वैदिक साहित्य में इसके उपदेष्टा क्षत्रिय माने गये हैं, तथा हमारे चौबीसों तीर्थंकर क्षत्रिय थे। अत: तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट समस्त तत्त्वज्ञान में अध्यात्म-विषयक प्ररूपण ही सर्वाधिक महनीय रहा है। आध्यात्मिक साधना का क्रम वस्तुत: 'अविरत-सम्यक्त्व गुणस्थान' से ही प्रारम्भ हो जाता है। क्योंकि आत्मज्ञान एवं मोक्षसाधना का मूल बाधकतत्त्व 'मिथ्यात्व' है, जिसे 'मिथ्यादर्शन' भी कहा जाता है। सम्पूर्ण बाह्य क्रियाकलाप मिलकर भी मिथ्यात्व का बाल भी बांका नहीं कर पाते हैं। इसीलिए आचार्यों ने एकस्वर से मिथ्यात्व' को संसार का मूलकारण' कहा है। इसी को 'मुख्य बंधहेतु' भी सर्वत्र प्रतिपादित किया गया है। ___ वस्तुत: आत्मतत्त्व के अश्रद्धान या विपरीत श्रद्धान का नाम ही 'मिथ्यात्व' है, अत: अन्य बाह्य क्रियाओं से मिथ्यात्व को कोई हानि नहीं होती है। आत्मज्ञानशून्य वे क्रियायें इसीप्रकार हैं, जैसे चेहरे पर लगे दाग को दर्पण में देखकर दर्पण को पोंछने की चेष्टा करना। परदृष्टि से तो मिथ्यात्व पुष्ट होता है। यह परदृष्टि की ही तो महिमा है कि कतिपयजनों को मिथ्यात्व बंधका कारण' या 'संसार का हेतु' नहीं दिखता है। यहाँ तक कि सम्पूर्ण आगमों में स्पष्ट मिथ्यात्व के बंधकारणत्व का स्पष्ट निर्देश होते हुए भी मात्र पूर्वाग्रह से वे अपनी बात पर दृढ़ हैं। इस प्रसंग में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती 'गोम्मटसार' ग्रंथ की वह गाथा स्मरण आती है 004 प्राकृतविद्या-जनवरी-मार्च '2000

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