Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 13
________________ अपने लाड़ले पुत्र का नृप सिद्धार्थ ने बड़े लाड़-दुलार से सार्थक नामकरण किया 'वर्द्धमान'– " श्री वर्द्धमान इति नाम चकार राजा" तब वहाँ उपस्थित समस्त देवों एवं नर-नारियों ने तुमुलघोष किया— " जय वड्ढमाण- - जस वड्ढमाण” अर्थ :- जिनका यश सदा वर्द्धमान ( उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ) है, ऐसे वर्द्धमान की जय हो । उनके शरीर का वर्ण तपे हुए सोने के समान तेजस्वी एवं नयनाभिराम था। “णमिदूण वड्ढमाणं कणयणिहं देवराय - परिपुज्जं” - (गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा 401 ) अन्यत्र इन्हें गाय के दूध के समान पीताभ गौरवर्णी कहा गया है— “गोखीर-संखधवलं मंसं रुधिरं च सव्वंगे” – (आ० कुन्दकुन्द, बोधपाहुड, 4/38) उनका शरीर एक हजार आठ शुभ लक्षणों से युक्त था“सहसट्ट-सुलक्खणेहिं संजुत्तो" - ( दंसणपाहुड, 35 ) चूँकि उनके जन्म के समय नन्द्यावर्त राजप्रासाद पर 'सिंह' चिह्नांकित ध्वजा फहरा रही थी, अत: उनका चिह्न 'सिंह' घोषित हुआ “ सिंहो अर्हतां ध्वजा " लिच्छिवियों की पताका (ध्वजा ) पर 'सिंह' का चिह्न अंकित था । तत्कालीन प्रख्यात ज्योतिषियों ने तिथि - नक्षत्र, मुहूर्त आदि की विशद गणनापूर्वक कुमार वर्द्धमान की जन्मकुण्डली बनायी— १२ २ शुक्र ११ सूर्य १ बुध प्राकृतविद्या + जनवरी Jain Education International मंगल १० गुरु ४ राहु ९ ७ शनि - जून 2001 (संयुक्तांक) ८ इसमें लग्न में उच्च का मंगलग्रह केतु के साथ है, सप्तम स्थान में राहु है और उस स्थान पर मंगल की पूर्ण दृष्टि है । इसलिये यह स्पष्ट है कि तीर्थंकर कुमार वर्द्धमान निश्चयरूप से अविवाहित रहे । उपर्युक्त ग्रह उनका बाल ब्रह्मचारी होना सिद्ध करते ६ चन्द्र >महावीर - चन्दना - विशेषांक 00 11 For Pivate & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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