Book Title: Prakrit Vidya 01
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 11
________________ स्वामी मेरे लिए शरणभूत हैं। ऐसे त्रिलोकपूज्य भगवान् महावीर स्वामी की जीवनगाथा जैन-परम्परा में आत्मा की अनादि-अनन्तता को प्रमाणित करती हुई वर्णित है । पुराणग्रन्थों के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पौत्र 'मारीच' के भव से इनकी आत्मकथा प्रारंभ होती है। तीर्थंकर ऋषभदेव की दिव्यध्वनि के अनुसार यह मारीच स्वयं को भरतक्षेत्र का चौबीसवाँ तीर्थंकर बनना सुनिश्चित जानकर दुरभिमान के शिखर पर आरूढ होकर तीर्थंकर का विरोध करनेवाला बन गया और अनगिनत भव-भवान्तरों तक संसार में परिभ्रमण करता रहा । फिर महावीर के भव से दस भव पूर्व सिंह जैसी तिर्यंच पर्याय में दो ऋद्धिधारी मुनिराजों के सम्बोधन से आत्मबोधपूर्वक उसने सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया और मोक्षमार्ग के प्रथम सोपान पर पदविन्यास किया। कैसी विडम्बना थी कि स्वयं तीर्थंकर की दिव्यध्वनि से मनुष्य-पर्याय में जो तत्त्व समझ में नहीं आया, सामान्य मुनिराजों के समझाने पर तिर्यंच अवस्था में भी उसने उसे आत्मसात् कर लिया । फिर क्रमशः आत्मसाधना के पथ पर अग्रसर रहते हुये विविध पुण्यशाली पदों को अलंकृत करते हुये अंतत: 'वैशाली' गणतन्त्र के कुण्डग्रामाधिपति राजा सिद्धार्थ के आंगन में माँ प्रियकारिणी त्रिशला के हर्ष को बढ़ाते हुये उसने चरमशरीरी बनकर मनुष्य जन्म सार्थक किया । राजा सिद्धार्थ के सम्बन्ध में निम्नानुसार महिमागान प्राप्त होता है“भूपति - मौलिमाणिक्यः सिद्धार्थो नाम भूपति: । ” - ( काव्य शिक्षा, 31 ) “नाथो नाथकुलस्यैक: सिद्धार्थाख्यः । " – ( उत्तरपुराण 75/8, पृष्ठ 482 ) माँ त्रिशला की कुक्षि में महावीर के जीव के अवतरण से पूर्व उनकी मन:स्थिति का प्रभावी चित्रण इस पद्य में वर्णित है— “एषैकदा तु नवकल्पलतेव भूयो भूयः प्रपन्नॠतुकापि फलेन हीना । आलोक्य केलिकलहंसवधूं सगर्भां दध्यौ धरापतिवधूरिति दीनचेता । । ” रानी त्रिशला को विवाह के वर्षों बाद भी पुत्रलाभ नहीं हुआ, इससे वह खिन्न रहती थीं। उसने एक दिन ऋतु स्नान के बाद उद्यान पुष्करिणी पर केलिमग्न हंसवधू को देखा, वह हंसवधू गर्भवती थी। रानी त्रिशला विचारने लगी, मैं कल्पलता के समान बार-बार ऋतुमती होती हूँ, किन्तु फल कुछ नहीं अर्थात् फल से शून्य हूँ, पुत्ररहित हूँ । इसप्रकार वह दीन मन से विचारने लगी । ऐसी मानसिक पीड़ा भोगने के बाद जब गर्भावतरण के छह मास पूर्व 'नन्द्यावर्त' महल के आंगन में दिव्य रत्नवृष्टि होने लगी, तभी से भावी तीर्थंकर के अवतरण की मनोरम कल्पना सभी के मन में अँगड़ाई लेने लगी। माँ प्रियकारिणी त्रिशला भी उस क्षण की उत्कंठा से प्रतीक्षा करने लगीं। फिर एक दिन आषाढ शुक्ल षष्ठी की प्रत्यूष - बेला (पंचमी की रात्रि के अन्तिम प्रहर ) में उन्होंने दिव्य - फलसूचक उत्तमोत्तम सोलह स्वप्न Jain प्राकृतविद्या जनवरी-जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर चन्दना - विशेषांक 009 www.jalnelibrary.org

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