Book Title: Prakrit Sikhe Author(s): Premsuman Jain Publisher: Hirabhaiya Prakashan View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहित लोगों का स्वाभाविक वचन व्यापार । उससे उत्पन्न अथवा वही ( वचन - व्यापार ) प्राकृत है । 'प्राक् कृत' पद से प्राकृत शब्द बना है, जिसका अर्थ है -- ' पहले किया गया' । जैनधर्म के द्वादशांग ग्रन्थों में ग्यारह अंग ग्रन्थ पहले किये गये हैं; अत: उनकी भाषा प्राकृत है, जो बालक, महिला आदि सभी के लिए सुबोध है। इसी प्राकृत के देश-भेद एवं संस्कारित होने से अवान्तर विभेद हुए हैं । अतः प्राकृत शब्दों की व्युत्पत्ति करते समय प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम् अथवा प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम् - अर्थ को स्वीकार करना चाहिये । इससे भाषा - विज्ञान का यह तथ्य भी प्रमाणित होता है कि 'भाषा की उत्पत्ति किसी बोली से होती है, न कि किसी अन्य भाषा से' | इस प्रकार संस्कृत, प्राकृत में कोई जन्य-जनक भाव नहीं है, अपितु वे दोनों किसी एक ही स्रोत से विकसित होने के कारण स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में आयी हुई भाषाएँ हैं । भेद-प्रभेद प्राकृत भाषा की उत्पत्ति एवं विकास की दृष्टि से उसके मुख्यतः दो भेद किये जा सकते हैं - कथ्य प्राकृत, जो बोल-चाल में बहुत प्राचीन समय से प्रयुक्त होती रही है, किन्तु जिसका कोई उदाहरण हमारे समक्ष नहीं है; दूसरी प्रकार की प्राकृत साहित्य की भाषा है, जिसके कई रूप उपलब्ध हैं । इस साहित्यिक प्राकृत के भाषा प्रयोग एवं काल की दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं - (अ) आदि युग, (आ) मध्य युग (इ) अपभ्रंश युग । ई. पू. छठी शताब्दी से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक के बीच प्राकृत में निर्मित साहित्य की भाषा प्रथम युगीन प्राकृत कही जा सकती है। इस प्राकृत के पाँच रूप हैं : (१) आर्ष प्राकृत : भगवान् बुद्ध और महावीर के उपदेशों की भाषा क्रमशः पालि और अर्धमागधी के नाम से जानी गयी है । इन भाषाओं को आर्ष प्राकृत कहना उचित है, क्योंकि धार्मिक प्रचार के लिए सर्वप्रथम इन भाषाओं का ही प्रयोग हुआ है । प्राकृत सीखें: ८ For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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