Book Title: Prakrit Sikhe
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Hirabhaiya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्धमागधी जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है। प्राचीन आचार्यों मगध प्रदेश के अर्धाश में बोली जाने वाली भाषा को अर्धमागधी कहा है । कुछ विद्वान् इसमें मागधी भाषा की कतिपय विशेषताएँ होने के कारण इसे अर्धमागधी कहते हैं । मार्कण्डेय ने शौरसेनी के निकट होने से मागधी को ही अर्धमागधी कहा है। वस्तुतः अर्धमागधी में ये तीनों विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं। पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी भाषा के बीच के क्षेत्र में बोली जाने के कारण इसका अर्धमागधी नाम सार्थक होता है । यद्यपि इसका उत्पत्ति-स्थान अयोध्या माना जा सकता है, फिर भी इसका महाराष्ट्री प्राकृत से अधिक सादृश्य है। इसके अस्तित्व में आने का समय ई. पू. चौथी शताब्दी माना जा सकता है। __अर्धमागधी का रूप-गठन मागधी और शौरसेनी की विशेषताओं से मिलकर हुआ है। इसमें लुप्त व्यंजनों के स्थान पर य श्रुति होती है । यथाश्रेणिकम् > सेणियं । 'क' का 'ग', 'न' का 'ण' एवं 'प' का 'व' में परिवर्तन होता है। प्रथमा एकवचन में 'ए' तथा 'ओ' दोनों होते हैं । धातु-रूपों में भूतकाल के बहुवचन में इंसु' प्रत्यय लगता है; तथा कृदन्त में एक धातु के कई रूप बनते हैं । यथा-कृत्वा के कट, किच्चा, करिता, करित्ताणं, आदि। शौरसेनी शौरसेनी प्राकृत शूरसेन (मथुरा) की भाषा थी । इसका प्रचार मध्यदेश में हुआ था। जैनों के षटखंडागम आदि ग्रंथों की रचना इसी में हुई थी। बाद में दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों की यह मूल भाषा बन गयी। उपलब्ध साहित्य की दृष्टि से यह सब में प्राचीन प्राकृत है । जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त नाटकों में भी इसका प्रयोग हआ है। इसमें कृत्रिम रूपों की अधिकता पायी जाती है। शौरसेनी में त का द, थ एवं ह का ध, भ का ह में परिवर्तन होता है । यथा-जानाति >जाणादि, कथयति>कधेदि आदि । गच्छतिः गच्छदि, प्राकृत सीखें : १० For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74