Book Title: Prakrit Sikhe
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Hirabhaiya Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डा. प्रेमसुमन जैन प्राकृत सीखें हीरा भैया प्रकाशन For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकृत सीखें डॉ. प्रेमसुमन जैन सह-आचार्य एवं अध्यक्ष, जनविद्या एवं प्राकृत-विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर हीरा भैया प्रकाशन, इन्दौर १९७९ For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीर्थंकर, मासिक, इन्दौर प्राकृत सीखें प्रेमसुमन जैन प्रथम आवृत्ति १९७९ मूल्य : तीन रुपये हीरा भैया प्रकाशन, ६५, पत्रकार कालोनी, कनाड़िया रोड, इन्दौर-४५२००१, मध्यप्रदेश मुद्रण : नईदुनिया प्रेस, इन्दौर PRAKRIT SEEKHEN Grammar/1979/Premsuman For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकीय "तीर्थकर" मासिक का प्रकाशन मई १९७१ से आरम्भ हुआ और संयोगतः मनिश्री विद्यानन्दजी के वर्षायोग की स्थापना भी जुलाई १९७१ में इन्दौर में हुई; और इस तरह अनायास ही हीरा भैया प्रकाशन-जैसी अव्यवसायी संस्था ने सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और धार्मिक युगान्तर के एक अचीन्हे, किन्तु अपरिहार्य कार्यक्रम पर हस्ताक्षर कर दिये । "तीर्थंकर" अनवरत प्रकाशित होता रहा और कई मनस्वी लेखक इस क्रान्तिधारा से जुड़ते चले गये । प्रणम्य अग्रज श्री वीरेन्द्र कुमार जैन ने जैन पुराकथाओं को लेकर अधुनातन प्रयोग किये। ये कथाएँ “तीर्थकर" में छपी और सैकड़ों पाठकों ने इन्हें सराहा-पढ़ा। इनकी महत्ता और उपयोगिता ने भारतीय ज्ञानपीठ-जैसी संस्था को प्रभावित किया परिणामतः अप्रैल १९७४ में वहाँ से इन कथाओं का एक संकलन “एक और नीलांजना" शीर्षक से प्रकाशित हुआ । इसी तरह स्व. भाई श्री माणक चन्द कटारिया के सामाजिक क्रान्ति के उत्प्रेरक लेखों का एक संग्रह श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर ने “महावीर : जीवन में ?" नाम से दिसम्बर १९७५ में प्रकाशित किया । ये सारे लेख भी "तीर्थंकर" के अंकों में छपे और खूब पढ़े-सराहे गये । बोधकथाकार श्री नेमीचन्द पटोरिया की बोधकथाओं का संकलन स्वयं हीरा भैया प्रकाशन, इन्दौर ने छापा । ये कथाएँ न केवल "तीर्थंकर" में फपीं अपितु देश की गुजराती, मराठी, कन्नड़ और हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में पुनः प्रकाशित हुई । अब हम "तीर्थकर" में ही धारावाहिक रूप में एकाणित दॉ पेमममन जैन के मुबोध पाकत-पाठों के संकलन का प्रकाशन "प्राकृत सीखें" शीर्षक से कर रहे हैं, हमें विश्वास है मनिश्री विद्यानन्दजी के मंगल इन्दौर-प्रवेश पर उन्हें श्रद्धापूर्वक समर्पित दस अकिंचन अर्घ्य को प्राचीन जैन साहित्य के अध्ययन-मनन के लिए स्नेहपूर्वक अपनाया जाएगा। ज्ञातव्य है कि "प्राकृत सीखें" पूज्य मुनिश्री, जिनके रूप में कुन्दकुन्द ने ही मानो अवतरण लिया है, की प्रेरणा-प्रसादी है तथा अग्रज श्री बाबूलालजी पाटोदी की बहुमूल्य सहायता की एक मंगल आकृति है। इन्दौर, ५ जुलाई १९७६ डॉ. नेमीचन्द जैन सम्पादक "तीर्थकर" मासिक For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रम पाठ १ : प्राकृत भाषा और साहित्य ५ पाठ २ : ध्वनि-सम्बन्धी विशेषताएं १४ पाठ ३ : पुल्लिग शब्दरूप और उनके प्रयोग २० पाठ ४ : सर्बनाम : रूप और प्रयोग २८ । पाठ ५ : स्त्रीलिंग शब्द : रूप और प्रयोग ३२ पाठ ६ : नपुंसकलिंग शब्द और उनके प्रयोग ३५ पाठ ७ : वर्तमानकाल : क्रियारूप एवं प्रयोग ३८ पाठ ८ : भूतकाल के क्रियारूप एवं प्रयोग ४३ पाठ ९ : भविष्यकाल ४६ पाठ १० : विधि आज्ञार्थ एवं क्रियातिपत्ति ५० पाठ ११ : कृदन्तरूप एवं उनके प्रयोग ५४ पाठ १२ : सन्धि, समास एवं अन्य प्रयोग ५४ परिशिष्ट १ : प्राकृत-वर्णमाला/प्राकृत में सामान्यतः होने वाले स्वर परिवर्तन ६९ परिशिष्ट २ : प्राकृत-व्यंजनों में सामान्यतः होने वाले परिवर्तन ७० For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ १: प्राकृत भाषा और साहित्य प्राकृत की प्राचीनता प्राचीन भारतीय आर्यभाषाकाल में जो भाषाएँ प्रचलित थीं उनके रूप ऋग्वेद की ऋचाओं में उपलब्ध होते हैं; अतः वैदिक भाषा ही प्राचीन भारतीय आर्यभाषा है । इसके अध्ययन से प्राकृत के उत्स को समझने में मदद मिलती है । वैदिक युग की भाषा में तत्कालीन प्रदेश-विशेषों की लोकभाषा के भी कुछ रूप प्राप्त होते हैं । इन देश्य भाषाओं को विद्वानों ने तीन भागों में विभक्त किया है--उदीच्य, मध्यदेशीय तथा प्राच्या या पूर्वीय विभाषा । इनका तत्कालीन साहित्यिक भाषा पर प्रभाव भी देखने को मिलता है । वेदों की भाषा, जिसे 'छान्दस्' कहा गया है, इन्हीं विभाषाओं से विकसित मानी गयी है। इनमें से प्राच्या विभाषा उन लोगों द्वारा प्रयुक्त होती थी, जो वैदिक संस्कृति से भिन्न विचार वाले थे । इन्हें 'व्रात्य' आदि कहा गया है। इन्हीं की भाषा को आगे चल कर बुद्ध और महावीर ने अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। उनके ग्रन्थों (उपदेशों) की भाषा आगे चलकर क्रमशः पालि और प्राकृत के नाम से प्रसिद्ध हुई। इधर वैदिक भाषा से संस्कारित होकर संस्कृत भाषा अस्तित्व में आयी ; अतःविकास की दृष्टि से संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाएँ बहिनें हैं तथा उतनी ही प्राचीन हैं, जितनी मानव-संस्कृति । क्रमशः इन भाषाओं का साहित्य धार्मिक एवं विधात्मक दृष्टि से भिन्न होता गया; तदनुसार इनके स्वरूप में भी स्पष्ट भेद हो गये। संस्कृत नियमबद्ध हो जाने से एक ही नाम से व्यवहृत होती रही तथा प्राकृत अनेक रूपों में परिवर्तित होने से महाराष्ट्री, मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची एवं अपभ्रंश आदि कई नाम धारण करती रही । प्राकृत सीख : ५ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्बन्ध : संस्कृत-प्राकृत के प्राकृत के संस्कृत भाषा के साथ दो प्रकार के सम्बन्ध हैं; भाषागत एव साहित्यगत । भाषा की दृष्टि से वैदिक भाषा और प्राकृत में अधिक समानताएँ हैं, जो उन्हें अपनी जननी लोकभाषा से प्राप्त हुई हैं । यथा संस्कृत वैदिक प्राकृत १. संयुक्त व्यंजन में एक दुर्लभः दूलभ दूलहो का लोप तथा ह्रस्व __ का दीर्घ स्वर २. ऋकार का उकार वृतः कृष्ट ३. बंजनान्त शब्दों का लोप पश्चात् पपचा पच्छा ४. द का ड होना दुर्दभः दूडम दण्ड-डंडा ५. ध काह होना प्रतिसंघाय प्रतिसंहाय बधिर-वहिरी ६. स्वरागम स्वर्गः मुवर्गः सुवग्गो ७. प्रथमा में ओकार साचित सो चित् सोचित ८. चतुर्थी के स्थान पर पष्ठीविभक्ति तथा द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग वैदिक भाषा और प्राकृत में समान है। इसी प्रकार संस्कृत में कुछ ऐसे शब्द भी पाये जाते हैं, जो जनभाषा से उसमें आये हैं, उन्हें प्राकृत का कहा जा सकता है । 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रयोग जिन शब्दों में होता है वे इसी कोटि के हैं । यथा--अणि, गुण्य, फण, कर्ण, गण, वेणु आदि । जिस प्रकार प्राकृत भाषा की कुछ समानताएँ वैदिकः भाषा तथा परवर्ती संस्कृत में पायी जाती हैं, उसी प्रकार प्राकृत भाषा में भी संस्कृत के बहुत से शब्दों को, एवं साहित्य की विशिष्ट शैली को अपनाया गया है। प्राकृत में प्रयक्त शब्दों को संस्कृत शब्दों के सादृश्य और पार्थक्य के आधार पर तीन भागों में बाँटा गया है--तत्सम, तद्भव, देश्य । जो शब्द संस्कृत से प्राकृत में ज्यों-के-त्यों ग्रहण कर लिये जाते हैं तथा जिनकी ध्वनियों में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता है, वे तत्मम शब्द प्राकृत सीखें : ६ For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहलाते हैं; यथा-नीर, धीर, धूलि, कण्ठ, कवि, तिमिर, संसार, रस' जल, तीर, कल, आगम, चित्त, इच्छा आदि । संस्कृत से वर्णलोप, वर्णागम, वर्णपरिवर्तन एवं वर्णविकार द्वारा जो शब्द उत्पन्न हुए हैं, वे तद्भव कहलाते हैं; यथा--अग्ग<अन, इट्ठ< इष्ट, गअ<गज, कसण<कृष्ण, जक्ख <यक्ष, फंस<स्पर्श, भरिआ< भार्या, मेह< मेघ आदि । जिन प्राकृत शब्दों की व्युत्पत्ति नहीं हो सकती तथा जिन शब्दों का अर्थ रूढ़िगत हो, ऐसे शब्दों को देश्य या देशी कहा गया है, जो जनसाधारण की बोलचाल की भाषा में सम्मिलित होते रहते हैं--यथा-अगय (दैत्य), दूराव (हस्ती), एलविल (धनाढ्य), जच्च (पुरुष), तोमरी (लता), घयण (गृह) आदि । ___ अतः प्राकृत भाषा का अध्ययन करते समय शब्दों के इस विभाजन को ध्यान में रखना आवश्यक है । इससे सन्दर्भगत अर्थ को ठीक से समझा जा सकता है । . 'प्राकृत' का अर्थ विद्वानों का एक वर्ग यह मानता है कि प्राकृत संस्कृत का ही विकृत रूप है । उनका यह मत वैयाकरणों के इस निर्देश पर आधारित है कि संस्कृत प्रकृति है, उससे उत्पन्न होने वाली प्राकृत है-'प्रकृतिः संस्कृतम, तत्रभवं प्राकृतम् उच्यते'। वैयाकरणों के अतिरिक्त कुछ आलंकारिकों ने भी यह मत प्रकट किया है। सबने 'प्रकृति' का अर्थ संस्कृत भाषा करके भ्रान्ति की है, जबकि प्राकृत को 'प्रकृति' शब्द से उत्पन्न मानना और उसे संस्कृत से जोड़ना प्रामाणिक नहीं है और न ही भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अर्थसंगत है, क्योंकि किसी भी भाषा के बल पर कोई स्वन्तत्र भाषा जन्म नहीं लेती; अतः प्राकृत भाषा की उत्पत्ति एवं व्याख्या के सम्बन्ध में विद्वानों ने वैज्ञानिक ढंग से स्वतन्त्र विचार किया है। प्राचीन विद्वान् नमिसाधु ने 'प्राकृत' शब्द की व्याख्या को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार 'प्राकृत' शब्द का अर्थ है व्याकरण आदि संस्कारों से प्राकृत सीखें : ७ For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहित लोगों का स्वाभाविक वचन व्यापार । उससे उत्पन्न अथवा वही ( वचन - व्यापार ) प्राकृत है । 'प्राक् कृत' पद से प्राकृत शब्द बना है, जिसका अर्थ है -- ' पहले किया गया' । जैनधर्म के द्वादशांग ग्रन्थों में ग्यारह अंग ग्रन्थ पहले किये गये हैं; अत: उनकी भाषा प्राकृत है, जो बालक, महिला आदि सभी के लिए सुबोध है। इसी प्राकृत के देश-भेद एवं संस्कारित होने से अवान्तर विभेद हुए हैं । अतः प्राकृत शब्दों की व्युत्पत्ति करते समय प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम् अथवा प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम् - अर्थ को स्वीकार करना चाहिये । इससे भाषा - विज्ञान का यह तथ्य भी प्रमाणित होता है कि 'भाषा की उत्पत्ति किसी बोली से होती है, न कि किसी अन्य भाषा से' | इस प्रकार संस्कृत, प्राकृत में कोई जन्य-जनक भाव नहीं है, अपितु वे दोनों किसी एक ही स्रोत से विकसित होने के कारण स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में आयी हुई भाषाएँ हैं । भेद-प्रभेद प्राकृत भाषा की उत्पत्ति एवं विकास की दृष्टि से उसके मुख्यतः दो भेद किये जा सकते हैं - कथ्य प्राकृत, जो बोल-चाल में बहुत प्राचीन समय से प्रयुक्त होती रही है, किन्तु जिसका कोई उदाहरण हमारे समक्ष नहीं है; दूसरी प्रकार की प्राकृत साहित्य की भाषा है, जिसके कई रूप उपलब्ध हैं । इस साहित्यिक प्राकृत के भाषा प्रयोग एवं काल की दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं - (अ) आदि युग, (आ) मध्य युग (इ) अपभ्रंश युग । ई. पू. छठी शताब्दी से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक के बीच प्राकृत में निर्मित साहित्य की भाषा प्रथम युगीन प्राकृत कही जा सकती है। इस प्राकृत के पाँच रूप हैं : (१) आर्ष प्राकृत : भगवान् बुद्ध और महावीर के उपदेशों की भाषा क्रमशः पालि और अर्धमागधी के नाम से जानी गयी है । इन भाषाओं को आर्ष प्राकृत कहना उचित है, क्योंकि धार्मिक प्रचार के लिए सर्वप्रथम इन भाषाओं का ही प्रयोग हुआ है । प्राकृत सीखें: ८ For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२) शिलालेखी प्राकृत : आर्ष प्राकृत के बाद शिलालेखों में प्रयुक्त प्राकृत भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह लिखित रूप में प्राकृत का सबसे पुराना साहित्य है । अशोक के शिलालेखों में इसके रूप सुरक्षित हैं । शिलालेखी प्राकृत का काल ई. पू. ३०० से ४०० ई. तक है । इन सात सौ वर्षों में लगभग हजार शिलालेख प्राकृत में लिखे गये हैं । खारबेल का हाथीगुंफा शिलालेख तथा उदयगिरि और खण्डगिरि के पुरालेख अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । (३) निया प्राकृत : निया प्रदेश (चीनी तुर्किस्तान) से प्राप्त लेखों की भाषा को 'निया प्राकृत' कहा गया है। इस प्राकृत का तोखारी भाषा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । (४) धम्मपद की प्राकृत : पालि धम्मपद की तरह प्राकृत में भी लिखा गया एक धम्मपद मिला है। इसकी लिपि खरोष्ठी है । इसकी प्राकृत पश्चिमोत्तर प्रदेश की बोलियों से सम्बन्ध रखती है । (५) अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत: अश्वघोष के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत जैन सूत्रों की प्राकृत से भिन्न है । यह भिन्नता प्राकृत के विकास सूचित करती है । इस समय तक मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी नाम से प्राकृत के भेद हो चुके थे । इस प्रकार प्रथम युगीन प्राकृत भाषा इन आठ सौ वर्षों में प्रयोग की दृष्टि से विभिन्न रूप धारण कर चुकी थी । ईसा की द्वितीय से छठी शताब्दी तक जिस प्राकृत भाषा में साहित्य लिखा गया है, उसे मध्ययुगीन प्राकृत कहा जाता है । इस युग की प्राकृत को हम साहित्यिक प्राकृत भी कह सकते हैं; किन्तु प्रयोग - भिन्नता की दृष्टि से इस समय तक प्राकृत के स्वरूप में क्रमशः परिवर्तन हो गया था, अतः प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राकृत के ये पाँच भेद निरूपित किये हैं---अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी एवं पैशाची । इनके स्वरूप एवं प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं: For Private and Personal Use Only प्राकृत सीखें: Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्धमागधी जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी कहा गया है। प्राचीन आचार्यों मगध प्रदेश के अर्धाश में बोली जाने वाली भाषा को अर्धमागधी कहा है । कुछ विद्वान् इसमें मागधी भाषा की कतिपय विशेषताएँ होने के कारण इसे अर्धमागधी कहते हैं । मार्कण्डेय ने शौरसेनी के निकट होने से मागधी को ही अर्धमागधी कहा है। वस्तुतः अर्धमागधी में ये तीनों विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं। पश्चिम में शौरसेनी और पूर्व में मागधी भाषा के बीच के क्षेत्र में बोली जाने के कारण इसका अर्धमागधी नाम सार्थक होता है । यद्यपि इसका उत्पत्ति-स्थान अयोध्या माना जा सकता है, फिर भी इसका महाराष्ट्री प्राकृत से अधिक सादृश्य है। इसके अस्तित्व में आने का समय ई. पू. चौथी शताब्दी माना जा सकता है। __अर्धमागधी का रूप-गठन मागधी और शौरसेनी की विशेषताओं से मिलकर हुआ है। इसमें लुप्त व्यंजनों के स्थान पर य श्रुति होती है । यथाश्रेणिकम् > सेणियं । 'क' का 'ग', 'न' का 'ण' एवं 'प' का 'व' में परिवर्तन होता है। प्रथमा एकवचन में 'ए' तथा 'ओ' दोनों होते हैं । धातु-रूपों में भूतकाल के बहुवचन में इंसु' प्रत्यय लगता है; तथा कृदन्त में एक धातु के कई रूप बनते हैं । यथा-कृत्वा के कट, किच्चा, करिता, करित्ताणं, आदि। शौरसेनी शौरसेनी प्राकृत शूरसेन (मथुरा) की भाषा थी । इसका प्रचार मध्यदेश में हुआ था। जैनों के षटखंडागम आदि ग्रंथों की रचना इसी में हुई थी। बाद में दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों की यह मूल भाषा बन गयी। उपलब्ध साहित्य की दृष्टि से यह सब में प्राचीन प्राकृत है । जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त नाटकों में भी इसका प्रयोग हआ है। इसमें कृत्रिम रूपों की अधिकता पायी जाती है। शौरसेनी में त का द, थ एवं ह का ध, भ का ह में परिवर्तन होता है । यथा-जानाति >जाणादि, कथयति>कधेदि आदि । गच्छतिः गच्छदि, प्राकृत सीखें : १० For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छदे; भवति >भोदि, होदि; इदानीम्>दाणि; पठित्वा>पढिया, पढिदूण आदि रूप शौरसेनी के विशिष्ट प्रयोग हैं। महाराष्ट्री सामान्य प्राकृत का अपर नाम महाराष्ट्री प्राकृत है, ऐसी धारणा कई विद्वानों की है; किन्तु इसका यह नाम उत्पत्ति-स्थल के कारण ही अधिक प्रचलित हुआ है। महाराष्ट्र प्रदेश में जो प्राचीन प्राकृत प्रचलित थी, उसी के बाद काव्य और नाटकों की महाराष्ट्री प्राकृत का जन्म हुआ है । इस प्राकृत में संस्कृत के वर्णों का अधिकतम लोप होने की प्रवृत्ति पायी जाती है। इस कारण महाराष्ट्री प्राकृत काव्य में सबसे अधिक प्रयुक्त हुई है। अत: इसे साहित्यिक प्राकृत भी कहा जा सकता है। जैन काव्य-ग्रन्थों और नाटक आदि काव्य-ग्रन्थों को महाराष्ट्री प्राकृत में कुछ भिन्नता है; अतः कुछ विद्वान् इसके महाराष्ट्री और जैन महाराष्ट्री, ऐसे दो भेद भी मानते हैं। मागधी __ अन्य प्राकृतों की तरह मागधी में स्वतन्त्र रचनाएँ नहीं पायी जातीं। केवल संस्कृत-नाटकों और शिलालेखों में इसके प्रयोग देखने में आते हैं। अतः प्रतीत होता है कि मागधो कोई निश्चित भाषा नहीं थी, अपितु उन कई बोलियों का उसमें सम्मिश्रण था, जिनमें ज के स्थान पर य, र> ल, सश तथा अकारान्त' शब्दों में ए का प्रयोग होता था। मागधी का निश्चित प्रदेश तय करना कठिन है; किन्तु पभी विद्वान् इसे मगध देश की ही भाषा मानते हैं, जो अपने समय में राजभाषा भी थी । इसकी उत्पत्ति वैदिक युग की किसी कथ्य भाषा मे मानी जाती है, यद्यपि इसकी प्रकृति शौरसेनी को माना गया है । शकारी, चांडाली और शाबरी जैसी लोक-भाषाएँ मागधी की ही प्रशाखाएँ हैं । पेशाची पैशाची का समय ईसा की दूसरी से पांचवीं शताब्दी तक माना गया है। इसके पूर्व की पैशाची के कोई उदाहरण साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं । प्राकृत सीखें : ११ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पैशाची भाषा किसी प्रदेश विशेष की भाषा नहीं थी, अपितु भिन्न-भिन्न प्रदेशों में रहने वाली किसी जाति विशेष की भाषा थी, जिस कारण इसका प्रचार कैकय, शूरसेन और पांचाल प्रदेशों में अधिक हुआ है। ग्रियर्सन इसे पश्चिम पंजाब और अफगानिस्तान की भाषा मानते हैं । पैशाची में वर्ण-परिवर्तन बहुत होता है; यथा-गकनं<गगनम्, मेखो> मेघः, राचा<राजा, पंचा<प्रज्ञा, सतनं< सदनम्, कच्चं<कज्जम् आदि। प्राकृत और आधुनिक भाषाएँ प्राकृत का विकास जनभाषा से हआ है, इसीलिए स्वभावतः वह अपना संबंध उससे सर्वथा विच्छिन्न नहीं कर सकी है। दूसरी ओर, उसके मुकाबले, संस्कृत का ढाँचा उत्तरोत्तर व्याकरणिक नियमों में जकड़ता गया और वह जनभाषा से छिन्न हो गयी। यद्यपि प्राकृत ने अपनी विकास-यात्रा मेंनये रूप धारण किये किन्तु साहित्य में अधिक प्रयुक्त होने के कारण वह भी रूढ़ हो गयी और परिणामस्वरूप एक नयी भाषा अस्तित्व में आयी जिसे अपभ्रंश कहा गया । जो भी हो, अप श को प्राकृत का ही एक रूपान्तर माना जाता है किन्तु चंकि कोई भाषा किसी भाषा को जन्म नहीं देती अतः अधिक तर्कसंगत यही है कि प्राकृत को कारणभूत मानते हुए भी इसकी विभाषाओं को ही अपभ्रंश की जननी माना जाए। इस तरह अपभ्रंश जनभाषा की नयी आकृति है जिसकी परवर्ती अवस्थाएँ देशी, अवहट्ठ आदि नामों से जानी जाती हैं। प्राकृत और अपभ्रंश में जितनी भाषागत समानता है, उससे कहीं अधिक साम्य है उसमें प्रयुक्त साहित्यिक विधाओं में और उसके माध्यम से प्रतिपादित जीवन-दर्शन में । इस तरह हम देख पाते हैं कि प्राकृत ने अपभ्रंश को नाना भाँति प्रभावित किया हैं और अपभ्रंश ने प्राकृत की दाय को पूरी निष्ठा से आधुनिक भारतीय भाषाओं को सौंपा है । वस्तुतः इस तरह, प्राकृत आधुनिक भारतीय भाषाओं की पूर्ववर्ती अवस्था ही है। प्राकृत सीखें : १२ For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न केवल अपभ्रंश अपितु देश की आधुनिक प्रादेशिक भाषाओं पर भी प्राकृत का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। उसके अधिकांश शब्द अपभ्रंशयुग से गुजरते हुए किंचित् ध्वनिगत परिवतनों के साथ आज की भाषाओं में व्यवहृत हैं; उदाहरणार्थ प्रा. ओइल्ल (ओढ़नी)-गुजराती (ओलयु); प्रा. उंडा (गहरा)गुज. (ऊंडा); प्रा. जीय (देखना)-गुज. (जोवू) ; प्रा. बँबाओ (चिल्लाना)-गुज. (बूम मारवू); प्रा. लीट (लकीर)-गुज. (लीटी); प्रा. धाव (तृप्ति)-राजस्थानी (धापणो); प्रा. अग्गि (अग्नि)उड़िया (अगी); प्रा. णई (नदी)-उड़िया (नई); प्रा. सही (सखी)उड़िया (सही); प्रा. कच्चहर (कृत्यगृह, कचहरी)-मैथिली (कचहरी); प्रा. मज्जुर (मयूर, मोर)-मैथिली (मजूर); प्रा. बेडिला (जहाज)भोजपुरी (बेड़ा); प्रा. महिलारू (पत्नी)-भोजपुरी (मेहरारू); प्रा. चिल्लिरी (जं)-बंदेलखण्डी (चिलरा); प्रा. छेलि (बकरी)-बुंदेलखण्डी (छरि);प्रा. उंदर (चूहा)-मराठी (उंदीर); प्रा. तूलि (सूती चादर)मराठी (तुली, तुले); प्रा. कुरर (भेड़)-कन्नड़ (कुरी); प्रा. पुल्लि (बाघ)-कन्नड़ (हुलि); प्रा. अक्क (माँ)-तमिल (अक्का); प्रा. चवेड़ (ताली बजाना)-तेलुगु (चप्पट)। ___ उक्त शब्दों के अतिरिक्त प्राकृत के ऐसे हजारों शब्द हिन्दी में प्रयुक्त हैं, जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत से ज्ञात नहीं है; अतः प्राकृत एवं अपभ्रंश का अध्ययन न केवल प्राचीन भारतीय संस्कृति के परिज्ञान के लिए आवश्यक है अपितु आधुनिक भारतीय साहित्य की बहमल्य सांस्कृतिक धरोहर का परिपूर्ण परिचय, अध्ययन, अनुसंधान ही तब संभव है जब प्राचीन भारतीय भाषाओं एवं मध्यकालीन भाषाओं का एक व्यापक तुलनात्मक विश्लेषण किया जाए । प्राकृत सीखें: १३ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ २ : ध्वनि संबन्धी विशेषताएँ पाठमाला के अलावा आगमग्रन्थों में प्राकृत-व्याकरण के कतिपय नियमों का विवेचन हुआ है । संभव है, प्रारम्भ में प्राकृत में ही प्राकृत का कोई व्याकरण रहा हो, किन्तु आज ऐसा कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । प्राकृत के जो भी व्याकरण आज हैं, वे सभी संस्कृत में हैं । सब जानते हैं, संस्कृत का एकः व्याकरणसम्मत, व्यवस्थित रूप रहा है, अतः वैयाकरणों ने प्राकृत के स्वरूप आदि का विवेचन-विश्लेषण भी इसी चली आती शैली में किया है; किन्तु संस्कृत व्याकरण से भिन्न और विशिष्ट प्रयोग, प्रवृत्तियाँ जो प्राकृत में हैं, उनका विस्तृत विवेचन हुआ है । आचार्य हेमचन्द्र और वररुचि के प्राकृत व्याकरण प्राकृत के स्वरूप पर भरपूर प्रकाश डालते हैं । जर्मन विद्वान् डॉ. आर. पिशल के प्राकृत भाषाओं का व्याकरण ग्रन्थ में प्राकृत के विभिन्न रूपों (व्यावर्तनों) को विस्तार से समझाया गया है। कई अन्य ग्रन्थ भी हैं, किन्तु प्राकृत को सरल-सुबोध शैली में सीखने-सिखाने की दृष्टि से आज कोई बढ़िया किताब उपलब्ध नहीं है । विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों की बात अलग है, उस दृष्टि से कई संकलन प्रकाश में आये हैं जिनमें पं. बेचरदास दोशी का प्राकृतमार्गोपदेशिका, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के प्राकृत प्रबोध एवं अभिनव प्राकृत व्याकरण, श्री विजयकस्तूरसूरिकृत प्राकृत-विज्ञान पाठमाला तथा डॉ. कोमलचन्द जैन की प्राकृत प्रवेशिका उल्लेखनीय-उपयोगी पुस्तकें हैं । प्रस्तुत पाठमाला के लेखन में इनका उपयोग किया गया है । प्रस्तुत पाठमाला इस पाठमाला में थोड़े में और सरल ढंग से प्राकृत को हृदयंगम कराने की विनम्र चेष्टा की गयी है। हमें विश्वास है, इसके माध्यम से पाठक प्राकृत सीखें : १४ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकृत के प्राचीन वाडमय एवं जैनदर्शन के आधारभूत सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त कर सकेंगे और हिन्दी भाषा के विकास की एक कड़ी भी सहज ही उनके हाथ लग सकेगी। पाठमाला में उदाहरण एवं अभ्यासवाक्य प्रायः आगमग्रन्थों से लिये गये हैं; तथा प्राकृत भाषा के उन सभी प्रयोगों को संजोने का प्रयास किया गया है, जो प्राकृत-साहित्य के रसास्वादन में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं । प्रस्तुत पाठों में कुछ चुने हुए शब्द और धातुरूप ही प्रयुक्त हैं, ताकि पाठक को प्राकृत का प्रारम्भिक ज्ञान दिया जा सके और विशेष तलस्पर्शी अध्ययन के लिए उसमें ज्वलन्त अभिरुचि जगायी जा सके। स्वभावतः विशिष्ट ज्ञान के लिए विशिष्ट ग्रन्थों का अध्ययन जरूरी है। प्राकृत शब्दों की ध्वनि-सम्बन्धी विशेषताएँ प्राकृत व्याकरण का द्वार खटखटाने से पहले प्राकृत के कतिपय शब्दरूपों को जान लेना आवश्यक है । एक तथ्प स्पष्ट है कि जब किसी साहित्य में बोलचाल की भाषा प्रयुक्त होती है तब उसमें एक ही शब्द और धातु के नाना रूप प्रचलन में आ जाते हैं। यही कारण है कि प्राकृत में प्राय: शब्द और धातुओं के कई विकल्प देखे जाते हैं तथा संस्कृत में जिन स्वरों एवं व्यंजनों का प्रयोग होता है, प्राकृत में उन्हीं में अनेक परिवर्तन देखने को मिलते हैं । इसे शब्दों का प्राकृतीकरण कहा जा सकता है। स्वर-परिवर्तन सामान्यतः प्राकृत में स्वर-परिवर्तन की नीचे दी गयी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं-- १. ह्रस्व स्वरों का दीर्घोकरण : अश्वः>आसो (घोड़ा); वर्ष>वासो; कर्तव्यम् >काअव्वं; सिंहः>सीहो । २. दीर्घ स्वरों का ह्रस्वीकरण : मुनीन्द्रः>मुनिन्दो; नरेन्द्र>नरिन्दो; तैलम्>तेल्लं; यौवनम्>जोव्वणं । ३. स्वरों का लोप : अपि>पि; तथापि>तह वि; इति> __ ति; इव>व, व्व; असि>सि... For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४. सम्प्रसारण (क्रमशः य् व् र ल् का इ उ ऋ लृ में परिवर्तन) : व्यजनम् > विअणं, त्वरितम् > तुरिअं कथयति > ; लवणम् > लोणं । कहेइ; ५. ऋ, ऐ एवं औ के परिवर्तन : (अ) ॠ सामान्यतः अ, उ, इ तथा रि में बदल जाता है; यथा -- मृगः > मओ, ऋषि > इसी प्रवृत्तिः >पउत्ती, ऋद्धिः> रिद्धी । , ( आ ) ऐ > ए एवं अइ में बदलता है; यथा - शैलः > सेलो, दैत्यः>दइच्चो । (इ) औ> ओ, उ एवं अउ में बदल जाता है; यथा-कौमुदी - कोमुई, दौवाRe: > दुवारिओ, पौरः>पउरो । सरल व्यंजन- परिवर्तन संस्कृत में प्राकृत के अनेक शब्द परिवर्तित रूप में मिलते हैं । वस्तुतः बोलचाल में प्रयुक्त अनेक व्यंजनों को बदल कर संस्कृत में उनमें एकरूपता लायी गयी है, जब कि प्राकृत में ये शब्द अपने मूलरूप में प्रयुक्त होते रहे हैं । प्राकृत के वैयाकरणों ने संस्कृत को आधार मानकर ऐसे अनेक संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये हैं तथा उनके परिवर्तन के नियम बताये हैं; जैसे १. सामान्यतः शब्दों के आरंभ में आने वाले न, य, श और ष इस प्रकार परिवर्तित हुए हैं - नरः > णरो, यशः > जसो, शब्दः > सहो, श्यामा > सामा, षड्जः> सज्जो । २. शब्दों के बीच में आने वाले व्यंजनों में ढ, ण, म, र, ल, स तथा ह अपरिवर्तित रहे हैं; शेष व्यंजन इस प्रकार बदल जाते हैं-क, ग, च, ज, द, त, प, य, व लोप: नकुलं >णउलं, नगरं > णअरं, वचनं> वअणं, गजः >गओ, कृतं > कअं, यदि > जइ, विपुल > विउल, नयनं > णअणं, जीवः > जीओ । प्राकृत सीखें : १६ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३. ख, घ, थ, ध, फ, भ>ह : मुख:>मुहो, मेघः>मेहो, नाथः> णाहो, बधिरः>बहिरो,. मुक्ताफलं>मुत्ताहलं, सभा>सहा । ट>ड : घट:>घडो; ठ>ढ : पठति>पढइ; ड>ल तडागं>तलायं; न>ण : वनं.>वणं; ब>व : शिबिका> सिविया; श>स : देशः>देसो; ष>स : कषायः>कसाओ । ४. प्राकृत में हलन्त पद नहीं है अतः उनका लोप हुआ है या वे परिवर्तित हुए हैं; जैसे-पश्चात् >पच्छा, यत्>जं, शरद्>सरओ। ५. विसर्ग के परिवर्तन इस प्रकार हैं--नर:>णरो, मुनिः>मुणी, गुरुः> गुरू, रामा:>रामा । संयुक्त व्यंजन-परिवर्तन बोलने की सुविधा-सरलता की दृष्टि से प्राकृत में व्यंजनों का प्रयोग बहुत कम होता है । संस्कृत के संयुक्त व्यंजन प्राकृत में सरलीकृत होकर आये हैं । यह सरलीकरण समीकृत व्यंजन अथवा स्वरभक्ति (शब्द के बीच में स्वरागम) के कारण हुआ है । इस संदर्भ में निम्न तथ्य ध्यान देने योग्य १. प्राकृत में शब्दों के आरंभ में प्रायः संयुक्त व्यंजन नहीं मिलते; यथा--श्रमण>समणोः, ध्वजः>धओ, त्यागी>चाई, स्पर्श> फंसो । २. मध्यवर्ती संयुक्त व्यंजनों में कहीं प्रथम व्यंजन का लोप और द्वितीय का द्वित्व, तथा कहीं द्वितीय का लोप एवं प्रथम का द्वित्व हो जाता है। इस तरह का कोई अटल नियम नहीं है। कुछ संयुक्त व्यंजन-रूप इस प्रकार हैं... (क) शब्दः>सद्दो, मुक्तः>मुक्को, अग्निः>अग्गी, पक्व:> पक्को, अद्य>अज्ज, मध्यं>मज्झं। .. __(ख) श, ष, स, युक्त संयुक्त (जुड़वाँ) व्यंजनों में छ का आदेश एवं .. द्वित्व हुआ है, यथा>अप्सरा>अच्छरा, उत्साहः> उच्छाहो; : ख का आदेश एवं द्वित्व-शिक्षा>सिक्खा, भिक्षा>भिक्खा ; झ का आदेश एवं द्वित्व-क्षीयते>झिज्जइ। ... प्राकृत सीखें : १७ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ग) अनुनासिक और अनुस्वार के साथ भी व्यंजनों के द्वित्व होते हैं; यथा--चन्द्रः>चंदो, जन्म>जम्मो, कन्या>कण्णा, मन्ये>मण्णे । (घ) अन्तःस्थ वर्गों में भी द्वित्व होते हैं : यथा---मूर्खः>मुक्खो, अर्थ:> अट्ठो, अर्धम् >अड्ढे, आर्य->अज्ज । (ङ) ऊष्म व्यंजनों के द्वित्व होते हैं; यथा-पुष्करं>पोक्खर; दृष्टि:>दिट्ठी, पुष्पं>पुप्फं, प्रश्नः>पण्हो मनुष्यः> मणुस्सो । ३. स्वरभक्ति (शब्द के मध्य में स्वर का आना) आदि द्वारा व्यंजन-परिवर्तन; यथा--रत्नरयणं, स्नेहः>सणेहो, श्री. सिरी, स्याद्>सिया, पद्म>पउम । अन्य प्राकृत शब्दों का ज्ञान आगामी पाठों में प्रयुक्त' शब्दों से यथाप्रसंग होगा। प्राकृत वाक्य-रचना के प्रमुख नियम । प्राकृत में शब्द एवं धातु रूपों को जानने के पूर्व यह समझ लेना भी आवश्यक है कि वाक्य-संरचना में किन सामान्य नियमों का पालन करना होता है। कर्ता, कर्म, क्रिया आदि का प्रयोग प्रायः वाक्यों में निम्न प्रमुख नियमों के अनुसार होता है १. क्रिया का वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार होता है, जैसे--रामो पढइ । देवा गच्छन्ति । अहं नमामि । २. कर्ता में प्रथमा और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है; जैसेमोहणो गामं गच्छइ । सो पोत्थयं पढइ । ३. क्रिया की सिद्धि में जो सहायक हो, उसे करण कहते हैं । कारण में तृतीया विभक्ति होती है; जैसे-सच्चेण जयइ। डंडेन चलइ । पुत्तेण सह गच्छद। सुहेण जीवह । कण्णण बहिरो (कान से बहिरा) आदि । ४. किसी प्रयोजन तथा देने आदि के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है; जैसे-मोक्खस्स तवं करइ । बालकस्स धणं ददाति । अच्छे लगने अर्थवाली क्रियाओं तथा नमस्कार आदि में भी चतुर्थी का प्रयोग होता है। प्राकृत सीखें : १८ For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५. जिससे कोई वस्तु आदि अलग हो तो उसे अपादान कहते हैं । अपादान में पंचमी विभक्ति होती है; जैसे-रुक्खाओ पत्तं गिरइ । भय और रक्षा आदि अर्थ की धातुओं के साथ भी पंचमी होती है। जिससे विद्या पढ़ी जाए उसमें भी पंचमी होती है, जैसे-सो गुरुणो पढइ । ६. सम्बन्ध का बोध कराने के लिए षष्ठी विभक्ति होती है; यथारामस्स पुत्तो, रुक्खस्स, पुप्फाणि ; आदि । ७. किसी क्रिया के आधार को अधिकरण कहते हैं, जहाँ या जिसमें कोई कार्य किया जाता है । अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है; जैसेगिहे बालओ णिवसइ। विज्जालयम्मि पढ़इ । सीहो वणे भमइ । ८. कर्मवाच्य वाक्यों में कर्ता में तृतीया, कर्म में प्रथमा, एवं क्रिया कर्म के अनुसार होती है; जैसे-राइणा चिंतियं (राजा ने सोचा), तेण भणियं (उसने कहा) आदि । अन्य आवश्यक नियम यथास्थान दिये जाएँगे। प्राकृत सीखें : १९ For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ ३ : पुल्लिग शब्दरूप और उनके प्रयोग प्राकृत में तीन लिंग, तीन पुरुष एवं दो वचन होते हैं। द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का ही प्रयोग होता है। पुल्लिग में अकारान्त, इकारान्त' और उकारान्त' शब्दों के प्रयोग पाये जाते हैं । संज्ञा, सर्वनाम, धातु, अव्यय, प्रत्यय आदि की जानकारी भाषा-ज्ञान के लिए आवश्यक होती है; अतः आगामी पाठों में क्रमश: इनकी विशेष जानकारी प्राप्त होगी। यहाँ पुल्लिग शब्दरूप एवं वर्तमानकाल के धातुरूपों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है। अकारान्त शब्दों के विभक्ति-चिह्न विभक्ति एकवचन बहुवचन पढमा (प्रथमा) ओ, ए आ बीआ (द्वितीया) ए, आ तइया (तृतीया) ण, णं हि, हि, हिं चउत्थी (चतुर्थी) य, स्स ण, णं पंचमी (पञ्चमी) तो, ओ, उ, हि त्तो, ओ, उ, हि, हितो सुंतो छट्ठी (षष्ठी) ण, णं सत्तमी (सप्तमी) ए, म्मि, सि सु, सुं संबोहण (सम्बोधन) ओ, लुक् आ प्राकृत के कतिपय अकारान्त शब्द प्रथमा विभक्ति एकवचन में इस प्रकार हैं-देवो (देव), जणो (जन), वीयरागो (वीतराग), समणो (श्रमण), मणुसो (मनुष्य), आइच्चो (आदित्य), आयरिओ (आचार्य), प्राकृत सीखें : २० For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir FE जीवो (जीव), जिणिदो (जिनेन्द्र), णरो (नर), आआसो (आकाश), मिओ (मृग), मेहो (मेघ), चन्दो (चन्द्रमा), उज्जमो (उद्यम), निरयो (नरक), मणोरहो (मनोरथ), मोक्खो (मोक्ष), सहावो (स्वभाव), विणयो (विनय), पुत्तो (पुत्र) आदि । उदाहरण के लिए 'जिण' शब्द के विभक्ति-सहित रूप यहाँ दिये गये हैं; अन्य शब्दों के रूप भी इसी प्रकार प्रयुक्त होते हैं। जिण (जिन) एकवचन बहुवचन जिणो, जिणे जिणा जिणं जिणा, जिणे जिणेण, जिणेणं जिणेहि, जिणेहिं, जिणेहिँ जिणाय, जिणस्स जिणाण, जिणाणं जिणत्तो, जिणाओ, जिणाउ जिणत्तो, जिणाओ, जिणाहि जिणाहिन्तो जिणस्स जिणाण, जिणाणं जिणे, जिणम्मि, जिणंसि जिणेसु, जिणेसुं हे जिण, जिणो जिणा क्रिया-रूप वाक्य-रचना में शब्दों के अतिरिक्त क्रियारूपों का ज्ञान बहुत आवश्यक है। प्राकृत के क्रियारूप बहुत सरल हैं। विभिन्न कालों की अन्य क्रियाओं-सम्बन्धी जानकारी आगे दी जाएगी। यहाँ वर्तमानकाल की कुछ क्रियाओं के रूप प्रस्तुत हैं। वर्तमान काल के प्रत्यय एकवचन बहुवचन प्रथम पुरुष न्ति, न्ते, इरे मध्यम पुरुष सि, ए इत्था , ह ; उत्तम पुरुष मि .मो,मु, म # # प्राकृत सीखें : २१ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्र. पु. म. पु. उ. पु. अस्थि- -है - गच्छइ- -जाता है पढाइ पढ़ता है। पण मइ — प्रणाम करता है विहरइ — विहार करता है निदs - निंदा करता है। लहइ — प्राप्त करता है मुच्चइ — छोड़ता है मरइ-मरता है हो ( होना) धातु के रूप होइ होसि होमि गरहइ — घृणा करता है पेसइ - भेजता है लिहइ-लिखता है विसर -रहता है तिथ नहीं है www.kobatirth.org नमइ- -नमस्कार करता है। पावइ — पाता है भुंजइ-भोगता है गज्जइ गर्जता है णच्च-नाचता है क्रिया - कोश Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होन्ति, होन्ते, होइरे होइत्था, होह होमो, होम, होम सन्ति हैं पुच्छर - पूछता है जाणइ -- (मुणइ ) जानता है देइ देता है इच्छइ - इच्छा करता है वच्चइइ-जाता है संसरइ - भ्रमण करता है भणइ - कहता है पिवइ-पीता है - - धारइ — धारण करता है कुज्झइ — क्रोध करता है खाअइ-खाता है पडिबोहइ --जगाता है कहइ — कहता है अहिलहइइ-कामना करता है बीह —— डरता है www. खवइ क्षय करता है वसई-रहता है कुणइ करता है वाक्य-प्रयोग अरिहंतनमुक्कारो पढमं मगलं अस्थि - अरिहन्त- नमस्कार प्रथम मंगल है | आरओ मेरुव पिकंपो होइ - आचार्य मेरु के समान निष्कंप होता है । उवझाया रयणत्तयसंजुत्ता होंति - उपाध्याय रत्नत्रय से युक्त होते हैं । प्राकृत सीखें : २२ For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवा वितं नमसंति --देवता भी उसे नमस्कार करते हैं। देवा तित्थयरं जाणन्ति -देव तीर्थंकर को जानते हैं। समणो नयरे विहरइ -श्रमण नगर में घूमता है। पमायबहुलो जीवो संसरइ -प्रमादयुक्त जीव भ्रमण करता है। संवरविहीणस्स मोक्खो ण होइ -संयमहीन को मोक्ष नहीं होता है। दसणसुद्धो पुरिसो णिण्वाणं लहेइ -दर्शनशुद्ध पुरुष निर्वाण पाता है। जीवाणं रक्खणं धम्मो अत्थि --जीवों की रक्षा धर्म है। वीयरागा लोगमलोग मुणेइरे --वीतराग लोक-अलोक को जानते हैं। रामो मोक्खं अहिलहइ -राम मोक्ष की कामना करता है। अभ्यास हिन्दी में अनुवाद कीजिये___रामो देवे पणमइ। पुरिसो देवं नमइ । पुत्तो पइदिणं पिअरं पणमइ । आयासे मेहा संति । अग्गि उण्हं होइ। माहणो कोहं कुणइ । णरयम्मि अइ दुक्खा संति । वाराणसीए जण। णिवसंति । जो एगं जाणेइ सो सव्वं जाणइ । पावा नरा सुहं न पावेन्ति । धणं दाणेण सहल होइ। आयारो परमो धम्मो। अईव णेहो दुक्खस्स मूलं अस्थि । हे खमासमण ! मत्थएण वंदामि। प्राकृत में अनुवाद कीजिये वन में सिंह गरजता है। राम जिनवचन पढ़ता है। श्रमण आत्मा को जानता है। अलोभ अपरिग्रह है। आचार्य मरण से नहीं डरता है। वीतराग को सब जानते हैं। हरिभद्र ग्रन्थ लिखता है। इकारान्त और उकारान्त शब्द प्राकृत में पुल्लिग इकारान्त और उकारान्त शब्दों का भी प्रयोग होता है। इनकी रूप-रचना के उदाहरण इस प्रकार हैं। मुणि (मुनि) एकवचन बहुवचन मुणी मुणउ, मुणओ, मुणिणो मुणि मुणी, मुणिणो प्राकृत सीखें: २३ For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BE मुणी मुणिणा मुणीहि मुणिणो, मुणिस्स मुणीण, मुणीणं मुणिणो, मुणित्तो मुणीओ, मुणी हिन्तो, मुणीसुन्तो मुणिणो, म णिस्स मुणीण, मुणीणं मुणिम्मि, मुणिसि मुणीसु, मुणीसं मुणओ, मुणिणो बोहि (बोधि), रवि, कइ (कवि), अरि, समाहि (समाधि), निहि (निधि), तवस्सि (तपस्वी), सुहि (सुधी), नेमि, रिसी (ऋषि), अग्गि (अग्नि), णरवइ (नरपति), हरि आदि इकारान्त शब्दों के रूप मुणि जैसे ही चलेंगे। साहु (साधु) एकवचन बहुवचन साहू साहुणो, साहुओ साहु साहुणो, साहू साहुणा साहूहिं साहुणो, साहुस्स साहूण, साहूणं साहुणो, साहुत्तो साहूहिन्तो, साहूसुन्तो साहुणो, साहुस्स साहूण, साहूणं साहुम्मि, साहुंसि ___साहूसु, साहूसुं हे साहू साहवो, साहओ सवण्णु (सर्वज्ञ), गउ (गो), गुरु, मेरु, धणु, विज्जु (विद्युत्), उच्छु (इक्षु), मच्चु (मृत्यु), सयंभु (स्वयंभू), भाणु, पिउ (पिता), तरु, जंतु (प्राणी), पसु (पशु), थाणु (महादेव), पहु (प्रभु), रिउ (रिपु), विउ (विद्वान्), चारु (सुन्दर), विण्हु (विष्णु) आदि शब्दों के रूप साहु के समान ही चलेंगे। 4. AAAAA प्राकृत सीखें : २४ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुपचीनगर स्वरान्त एवं व्यञ्जनान्त पुल्लिग शब्द ऋकारान्त एवं व्यंजनान्त शब्द प्राकृत में भिन्न रूपों में प्रयुक्त होते हैं । कतिपय ऐसे शब्द यहाँ द्रष्टव्य हैं कर्तृ--कत्तार, भर्तृ--भत्तार, भ्रातृ-भायर, पितृ-पिउ, पितर, दातृ-दायार आदि। आत्मन्--अप्पाण (अत्ताण, अप्प, अत्त, आदा) आदि । राजन्-राय, मुग्ध-मुद्ध, जन्मन्-जम्मो, चन्द्रमस्--- चन्दमो, कर्मन्--कम्म, अर्हन्–अरहो, भगवत्--भगवन्तो आदि । इनके रूप प्राय: अकारान्त शब्दों जैसे चलते हैं। कुछ विभक्तियों में भिन्न प्रयोग भी देखने को मिलते हैं। राजन् (राय) और आत्मन् (अप्पाण) शब्द के रूप द्रष्टव्य हैं ___ राय (रायम् । एकवचन राया रायणो, राइणो रायं, राइणं राइणा, राएण, रण्णा राएहिं, राईहिं रणो, राइणो, रायस्स राईण, रायाणं रण्णो, राइणो, रायत्तो रायाहिता, रायासुतो, राइहितो रणो, राइणो, रायस्स राईण, रायाणं राय म्मि, राइम्मि राईसु, राएसु राय, राया राया, राइणो अप्पाण (आत्मन्) एकवचन बहुवचन अप्पाणो __ अप्पाणो अप्पाणं अप्पणा अपाणेहि अप्पाणस्स, अप्पणो अप्पाणाणं अप्पाणत्तो, अप्पाणाओ अप्पाणाहितो, अप्पाणासुंतो AAAAAAAAAA प्राकृत सीखें : २५ For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 छ. स. www.kobatirth.org --- अप्पाणस्स अप्पाणम्मि क्रिया-कोश उवदिसति - - उपदेश देता है विहरति-- भ्रमण करता है आरोह--चढ़ता है पलायति — भागता है अणुचरति -- सेवा करता है उट्ठइ -उत्पन्न होता है ओअइ-- प्रकाशित करता है। जिणइ — जीतता है Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रवणो सेणा गिरि आरोहइ जो उज्जाणे सुझाणं समायरन्ति मुणिणो गिरिम्मि तप करेन्ति afrat फुल्लिंगा निक्कसं ति इस जीवे या कुणांति गुरु सीसा उवदिसंति साहू गुरुहि सह विहरति वाम्म गमणं सक्कं नत्थि मचुं त्वा सो दुही होइ पाणीसुं तित्थयरा उत्तिमा संति हिन्दी में अनुवाद कीजिये अप्पाणाण अप्पाणेसु समारति-- आचरण करता है चिट्ठइ रहता है निक्कसति -- निकलता हैं अच्चति -- पूजा करता है पत्थति-स्तुति करता है सेवइ -- सेवा करता है विअसइ - - विकास करता है साव-सुनाता है वाक्य-प्रयोग - राजा की सेना पहाड़ पर चढ़ती है । यति उद्यानों में ध्यान करते हैं । - मुनि पहाड़ पर तपस्या करते हैं । -अग्नि से स्फुल्लिंग निकलते हैं । - ऋषि प्राणियों पर दया करते हैं । - गुरु शिष्यों को उपदेश देते हैं । - साधु गुरुओं के साथ भ्रमण करते हैं । - वायु में चलना संभव नहीं है । -- मृत्यु को जानकर वह दु:खी होता है । -- प्राणियों में तीर्थंकर उत्तम हैं । अन्नाणीसुं सुत्ताणं रहस्सं न चिट्ठर । इसिणो तुज्झ घरे भोयणं करेंति । हं मुणिणो अच्चेमि । ते मुणिणो अणुचरन्ति । मच्चुं को अहिल - हइ । तुमं भाणु पेच्छसि । पक्खिणो तरुसुं वसंति । पच्चूसे भाणुणो प्राकृत सीखें : २६ For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पयासो रत्तो हवइ। पंडिआ मच्चुणो ण बीहंति । गुरुस्स विणएण मुरुक्खो वि पंडिओ होइ । प्राकृत में अनुवाद कीजिये___मुनि प्राणों को धारण करते हैं। क्रोधाग्नि जलाती है। ऋषि ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हैं। राजा हरि की पूजा करता है। तुम सूर्य को देखते हो। मरुभूमि में कल्पवृक्ष उत्पन्न नहीं होता है। कवि काव्य लिखता है। जिनेन्द्र उत्पन्न नहीं होता है। कवि काव्य लिखता है। जिनेन्द्र इन्द्रियों को जीतते हैं। पक्षी आकाश में उड़ता है। मैं अपने पिता की सेवा करता हूँ। सब लोग आत्मा की उन्नति करते हैं। वे आत्मा का ध्यान करते हैं। प्राकृत सीखें: २७ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ ४ : सर्वनाम; रूप और प्रयोग वाक्यों को सुघड़-सुन्दर बनाने के लिए संज्ञा के स्थान पर सर्वनाम का प्रयोग होता है। इससे किसी एक संज्ञा शब्द की पुनरावृत्ति नहीं होती। जिस संज्ञा के स्थान पर जो सर्वनाम काम आता है, उसका लिंग-वचन उस संज्ञा के समान ही होता है, जैसे-मोहणो रामस्स भिच्चो अत्थि--मोहन राम का भृत्य (नौकर) है; सो निब्भओ अत्थि--वह निर्भय है। यहाँ ‘मोहणो' के स्थान पर 'सो' एवं निब्भओ विशेषण प्रयुक्त हुआ है। दोनों ही 'मोहणो' के समान पुल्लिग और एकवचन में हैं। सर्वनामों में वह, मैं, तुम, हम, यह, कौन, जो आदि अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं। तुम और मैं वाचक शब्दों के अतिरिक्त अन्य सर्वनाम शब्द प्राय: प्रथम पुरुष के होते हैं; तदनुसार ही उनके रूप चलते हैं। सर्वनामों के प्रयोग का ज्ञान और अभ्यास प्राकृत के वाक्यों के अधिकाधिक पढ़ने से ही संभव है । कुछ प्रमुख सर्वनाम शब्दों के रूप एवं तत्सम्बन्धी वाक्य-प्रयोग इस प्रकार हैं त (तद्)-वह, पुल्लिग, सर्वनाम एकवचन बहुवचन सो वी. तं त. तेण तस्स, से तेसि, ताण ततो, ताओ ताहितो तस्स, से तेसि, ताणं तहि, तम्मि तेसु, तेसुं तेहि # प्राकृत सीखें : २८ For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुवचन AAAAA इसी प्रकार ज (यद्)--जो, क (किम् )----कौन, एत (एतद्)यह आदि के रूप चलगे। सा (तद्)-वह, स्त्रीलिंग, सर्वनाम एकवचन सा तीआ, ताओ तीआ, ताओ तीआ, तीए, णाए ताहि, तीहि तीसे, ताए ताणं, तेसि तीए, ताए तीहितो तिस्सा, तीए ताणं, तेसि तीअ, तीए तीसु, तासु इसी प्रकार जा (यद्)--जो, एआ (एतद्)--यह आदि स्त्रीलिंग सर्वनाम शब्दों के रूप चलेंगे। नपुंसकलिंग सर्वनाम शब्दों में प्रथमा और द्वितीया विभक्तियों में कुछ भिन्नता है; शेष रूप पुल्लिग के समान ही चलते हैं। त (वह) नपुंसकलिंग सर्वनाम शब्द के प्र., द्वि. विभक्तियों में तं, ताई, ताणि रूप होंगे। शेष पुल्लिग के समान हैं। तुम्ह (युष्मद्) एवं अम्ह (अस्मद्) सर्वनामों के रूप तीनों लगों में एक-जैसे होते हैं । वाक्यों में इनका बहुत प्रयोग होता है; अत: इनके रूप नीचे दिये जा रहे हैं। तुम्ह (युष्मद् )-तुम एकवचन बहुवचन तुम , तुं, तुह तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह तुम, तुमे तुज्झ, तुम्हे तुमइ, तुमए तुह, तुम्हेहि तुम्हें, तुज्झ, तुह तुमाण, तुहाण प्राकृत सीखें : २९ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HA.AA AR नुक्तो, तुमाओ तुहितो, तुम्हासुंतो तुम्हें, तुज्झ, तुह तुमाण, तुहाण, तुम्हाण तुमए, तुहम्मि, तुमम्मि तुसु, तुमेसु, तुम्हेसु अम्ह (अस्मद् )-हम एकवचन बहुवचन हं, अहं, अम्मि अम्ह, वयं अम्मि , मम अम्हे, अम्ह ममए, मए अम्हेहि मम, महं, मज्झ अम्हाण, मज्झाण, ममाण मइत्तो, ममाओ ममाहितो, अम्मेहि मम, मह, मज्झ ममाण, मज्झाण म, अम्हम्मि, महम्मि अम्हेसु, ममेसु सर्वनामों में सव्व (सब, सभी) शब्द का बहुत प्रयोग होता है। प्राकृत में सव्व (पु.), सव्वा (स्त्री.), सव्वं (नपुं.) के रूप में क्रमश: जिणो, माला एवं वणं शब्दों की भाँति चलेंगे। वाक्य-प्रयोग सो पाढं लिहइ--वह पाठ लिखता है। इमो हसइ--यह हँसता है। इमे णमन्ति--ये नमस्कार करते हैं। एते धावन्ति--ये दौड़ते हैं। ते तं धिक्कारन्ति-वे उनको धिक्कारते हैं। इमिणा कज्ज हवइ---इसके द्वारा कार्य होता है। अस्स पोत्थयं अत्थि--इसकी पुस्तक है। तुम गिहं गच्छसि--तुम घर जाते हो। तुम कओ आगच्छसि---तुम कहाँ से आते हो? तुज्झ अवराहो नत्थि--तुम्हारा अपराध नहीं है। तुम्हें कज्ज करित्था--तुम लोग काम करते हो। अहं जलं गवेसामि--मैं जल खोजता हूँ। हं पावं गरहेमि-मैं पाप से घृणा करता हूँ। अम्हे भणामो--हम कहते हैं। ण को वि तं हणिउं समत्थो--उसे कोई नहीं मार सकता । सव्वेसिं गुणाणं बम्हेचेरं उत्तम अत्थि--सब गुणों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है। तह कुणसु, जह न संसारं निवडिमो--ऐसा करो, प्राकृत सीखें : ३० For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिससे हम संसार में न गिरें। एगो हं, नत्थि मे कोई--मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है। जो सत्थं पढेइ तस्स सुह लाहो--जो शास्त्र पढ़ता है, उसे सुख मिलता है। जो अप्पाणं जाणदि सो सव्वं जाणदि--जो आपको जानता है, वह सबको जानता है। एम ख णाणिणो सारं-- यही ज्ञानी के लिए सार है। अम्हे अण्णा अणुहरामो--हम लोग दूसरों का अनुकरण करते हैं। हिन्दी में अनुवाद कीजिये अहं नमामि । हं वत्थं धारेमि । अम्हे पढामो । सो तुज्झ धणं देइ । तुम्हे जाणह। तुम कि करोसि । ते गच्छन्ति । तस्स पुत्तो पढइ । अस्स पोत्थयं अस्थि ।। एते णमन्ति । इमो देवं णमइ। जे जिणवयणं ण जाणन्ति ते संसारे भमंति। एगो मे सासओ अप्पा। तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । जो अप्पाण झायदि तस्स परम समाही हवइ । प्राकृत में अनुवाद कीजिये यह बोलता है। वह दौड़ता है। तुम पढ़ते हो। मैं जाता हूँ। हम नमस्कार करते हैं। वे हँसते हैं। वह घर में रहता है। तुम जल पीते हो। मैं पुस्तक पढ़ता हूँ। हम भोजन करते हैं। प्राकृत सीखें : ३१ For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प. माला बी. मालं पाठ ५ : स्त्रीलिंग शब्द : रूप और प्रयोग माला, स्त्रीलिंग, संज्ञाशब्द एकवचन त. मालाअ, मालाड़, मालाए च. मालाअ, मालाइ, मालाए पं. मालाअ, मालाए, मालात्तो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छ. मालाअ, मालाइ, मालाए मालाअ, मालाइ, मालाए माले बहुवचन मालाउ, मालाओ मालाउ, मालाओ मालाहि मालाण, मालाणं मालाहितो, मालासुन्तो मालाण, मालाणं मालासु, मालासुं स. सं. माला माला शब्द के समान अन्य स्त्रीलिंग शब्दों के रूप भी चलेंगे । लदा (लता), मट्टिआ (मिट्टी), अच्चणा ( अर्चना ), कन्ना (कन्या), खमा (क्षमा) आदि शब्द इसी तरह के हैं । स्त्रीलिंग में इकारान्त, उकारान्त और ऊकारान्त शब्द भी प्रयुक्त होते हैं; यथा - मइ ( मति), मुत्ति (मुक्ति), राइ ( रात्रि), लच्छी (लक्ष्मी), नई (नदी), बोहि (बोधि ), बहिणी (बहिन ), बहू (वधू) आदि । माआ (माता), ससा (सास), धूआ (पुत्री), आदि ऋकारान्त स्त्रीलिंग शब्द हैं। कुछ अन्य प्रचलित स्त्रीलिंग शब्द इस प्रकार हैं : शब्द-कोश अज्जा (आर्या ), आणा ( आज्ञा ), पया (प्रजा), वीणा (वीणा), साहा (शाखा), कमला (लक्ष्मी), करुणा (दया), कहा ( कथा ), किवा (कृपा), कोइला ( कोकिला), छुधा (भूख ), गंगा ( गंगा नदी), गुहा प्राकृत सीखें |: ३२ For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (गुफा), धआ (त्वचा, चमड़ी), चवला (बिजली), जरा (बुढ़ापा), माया (स्त्री), जीहा (जिव्हा, जीभ), णावा (नौका), दुहिआ (लड़की), पसंसा (प्रशंसा), सिक्खा (शिक्षा), मइर (मदिरा), मुसा (मृषा, झूठ), जुवइ (युवति), सन्ति (शान्ति), इत्थी (स्त्री), सही (सखी), धेणु (गाय, धेनु), बिज्जु (बिजली), निंदा (निन्दा), पीइ (प्रीति), बोहि (बोधि), चिंता (चिन्ता, फिक्र), चमू (सेना), सरजू (सरयू), वक्खा (व्याख्या), लया (लता), रेहा (रेखा), कित्ति (कीर्ति), दिट्ठि (दृष्टि) वसुहा (पृथ्वी), गइ (गति), गोरी (पार्वती), जाइ (जाति)। धातु-कोश शायदि (ध्यान करता है), देति (देता है), छिन्नति (काटता है), णिम्मइ (बनाता है), विज्जोअइ (चमकता है), थुणइ (स्तुति करता है), पुणेइ (पवित्र करता है), हणइ (मारता है), रुच्चइ (पसन्द करता है), वट्टइ (वर्तमान है), आयइ (आता है), णासेदी (नाश करता है), अभिगच्छति (प्राप्त करता है), सज्जइ (सजाता है), तरइ (पार करता है), गिण्हइ (ग्रहण करता है), वड्ढइ (बढ़ता है), चितइ (चिन्ता करता है), रूसइ (गुस्सा करता है), लालइ (पालन करता है), लग्गइ (लगता है)। वाक्य-प्रयोग इच्छा आगाससमा अणंतिया होइ--इच्छा आकाश के समान अन्तहीन होती है। अहिंसा सव्वेसि क्तगुणाणं सारो अत्थि--अहिंसा सारे व्रत-गुणों का सार है । सीया मालं धारइ--सीता माला धारण करती है। लदाहिं घरस्स सोहा हवइ-लताओं से घर की शोभा होती है । मिट्टिआसु अण्णं उप्पणं हवइ-मिट्टी में अनाज उत्पन्न होता है। माया सहस्साण सच्चाण णासेदि-माया हजार सत्यों का नाश करती है। परणिंदा दोहग्गकरी होई--परनिन्दा दुर्भाग्यकारी होती है। तस्स मइ उत्तमा अस्थि--उसकी मति अच्छी है । मुत्तीए सव्वे पयत्तं कुणन्ति---मुक्ति के लिए सभी प्रयत्न करते हैं । लच्छी चवला हवाइ--लक्ष्मी चंचला होती है । अम्हे धेणूए दुद्धं पिवमो--हम लोग गाय का दूध पीते हैं । तीए बहुत्तो बहुसुखं अत्थि-- उसको बहू से बहुत सुख है । विणयहीया विज्जा फलं देंति--विनय से पढ़ी प्राकृत सीखें : ३३ For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गयी विद्या फल देती है । सग्गम्मि अच्छराओ णिवसंति--स्वर्ग में अप्सराएँ रहती है। भवन्तीए जत्ता सहला होइ--आपकी यात्रा सफल होती है। रेवइ सावियाए वियं गीण्हइ--रेवती श्राविका के व्रत ग्रहण करती है। सा विसयाणं चिंतणं करेइ--वह विषयों का चिन्तन करती है। चन्दपहा सीलवयस्स रक्खं कुणइ---चन्द्रप्रभा शीलवत की रक्षा करती है। हिन्दी में अनुवाद कीजिये लदाहिं घरस्स सोहा हवइ । मालाहिंतो सुयंधो आयइ । हलिहासु सत्ती णिवसइ । मुत्तीए सिद्धा णिवसंति । बहिणी भायरं णेहं कुणइ । माआ ममं सिणेहं करइ । सो नावाए नई तरइ। अहिलासा दुक्करा अत्थि । बाला णयरं गच्छइ । तुमं धूअं हणसि । तुम्हाणं समीवे बहुसंपया अस्थि । महिलाओ सन्ताणं लालन्ति । प्राकृत में अनुवाद कीजिये माता पुत्र को स्नेह करती है। कमला मोहन की पुत्री है । वे लक्ष्मी की इच्छा करते हैं। गंगा का प्रवाह तीव्र है। उनकी अभिलाषा दुष्कर है। आकाश में बिजली चमकती है। वृक्ष की छाया शीतल है। मैं लताओं से फूल तोड़ता हुँ । सीता सभा में बोलती है। प्राकृत सीखें : ३४ For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ ६ : नपुंसकलिंग शब्द और उनके प्रयोग । वहि प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में नपुंसकलिंग के स्वरान्त शब्दों में विभक्ति-चिह्न अनुस्वार' जोड़ा जाता है तथा बहुवचन में इं, इ,णि विभक्ति चिह्न जोड़े जाते हैं । तृतीया विभक्ति से आगे नपुं. शब्दों के मभी रूप पुल्लिग शब्दों के समान ही चलते हैं। कुछ प्रमुख शब्दरूप इस प्रकार हैं वण (वन), नपुं. संज्ञा एकवचन बहुवचन वणं वणाई, वणाइँ, वणाणि बी. वणं वणाई, वणा', वणाणि त. वणेण वणस्स वणाणं वणत्तो, वणाओ वणाहितो . वणस्स वणाणं वणम्मि वणेसु सं. हे वण हे वणाई शब्द-कोश अब्भं (मेघ), कमलं (कमल), मिणबिम्बं (जिनबिम्ब) नाणं (ज्ञान), दाणं (दान), जोव्वणं (यौवन), वागरणं (व्याकरण), समायरणं (समाचरण), आयासं (आकाश), आसणं (आसन), दव्वं (द्रव्य), भयं (भय), समोसरणं (समवसरण), सिद्धालयं (सिद्धालय), वेमणस्स (वैमनस्य), वेरमणं (निवृत्ति), वेहवं (वैभव), संठाणं EFEE प्राकृत सीखें : ३५ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (आकृति), संतावणं (सन्ताप), सच्चं (सत्य), सत्तं (सत्त्व), सद्दहाणं (श्रद्धान), सागयं (स्वागत), सिवं (मंगल, शिव), सुन्देरं (सौन्दर्य), सुकयं (पुण्य), सुत्तं (सूत्र), सुहं (सुख), रिणं (ऋण, कर्ज), कवडं (कपट), कुडुवं (कुटुम्ब), गेहं (घर) इनके रूप नपुंसकलिंग शब्द की तरह चलेंगे। प्राकृत में कुछ इकारान्त एवं उकारान्त नपुंसकलिंग शब्द भी प्रयुक्त होते हैं; यथा--दहि (दधि, दही), वारि (जल), सुरहि (सुरभि), महु (मधु), अंसु (अश्रु) आदि । इनके रूप प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति में नपं. के चित्रों से यक्त शेष विभक्तियों में प्रायः पल्लिग मनि, साह जैसे शब्दों की भांति होते हैं । दाम (दामन्), नाम (नामन्), पेम्म (प्रेमन्), सेय (श्रेयस्), भगवन्त (भगवत्), आउस (आयुष्) जैसे नपुंसकलिंग शब्द भी प्राकृत में प्रयुक्त हैं। धातु-कोश चिणंति--चुनता है। वरसेइ-बरसता है । छिदइ-काटता है । रएइ--रचता है। मुंचइ--छोड़ता है। नयंसति--नमस्कार करता है। चोरेइ---चुराता है । सोहइ----शोभित होता है। जोअइ-~-चमकता है। चिट्ठइ-रहता है। वाक्य-प्रयोग नक्खत्ताणं मिअंको जोअइ--नक्षत्रों में चन्द्रमा चमकता है। पाइयकव्वं हिययं सुहावइ--प्राकृतकाव्य हृदय को अच्छा लगता है। सो पावकम्म ण करेइ--वह पाप कर्म नहीं करता है । साहणं दंसणं दुरियं पणासेइ--साधुओं का दर्शन पाप नष्ट करता है । बह्मचेरं उत्तम अत्थि --ब्रह्मचर्य उत्तम है । समोसरणम्मि सव्वे जीवा आसंति---समवसरण में सभी जीव बैठते हैं । सिद्धालयम्मि सिद्धा णिवसन्ति--सिद्धालय में सिद्ध रहते हैं । तस्स संठाणं सुन्देरं अत्थि---उसकी आकृति सुन्दर है। वारिम्मि मच्छा संति---जल में मछलियाँ हैं । अहं पावं निदेमि--मैं पाप की प्राकृत सीखें : ३६ For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निन्दा करता हूँ। अम्हे नाणं इच्छामो-हम ज्ञान की इच्छा करते हैं। जणो कुढारेण कट्ठाई छिदइ-व्यक्ति कुठार से लकड़ी काटता है। हिन्दी में अनुवाद कीजिये___ अभं परसेइ । मोरो नच्चं करेइ । चोरो धणं चोरेइ । दाणेण धणं सहलं होइ । उज्जमेण कज्जाणि सिझंति । नाणं तत्ताणं पयासगं होइ। वच्छस्स फलाणि महुराणि संति । धम्मो सुहाणं मूलं । अहं मत्थएण वंदामि । सो उज्जाणं गच्छइ । प्राकृत सीखें : ३७ For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ : ७ वर्तमानकाल; क्रियारूप एवं प्रयोग प्राकृत में काल-रचना की दृष्टि से वर्तमान, भूत, भविष्य, आज्ञा, विधि और क्रियातिपत्ति के क्रियारूप एवं उनके प्रयोग पाये जाते हैं। सहायक क्रिया के साथ कृदन्त रूपों का व्यवहार भी देखने को मिलता है। क्रियाओं में प्रायः परस्मैपद का प्रयोग होता है; यथा-सहे>सहेमि; गम्यते>गच्छीअदि आदि । वर्तमान काल के धातुरूपों एवं उनके प्रत्ययों आदि को इस प्रकार समझा जा सकता है। अस् (विद्यमान होना); धातु एकवचन बहुवचन प्र.पु. अत्थि अत्थि, संति म.पु. अत्थि, सि अस्थि उ.पु. अत्थि, म्हि अत्थि, म्हो, म्ह वाक्य-प्रयोग सो पुरिसो अत्थि-वह पुरुष है । ते बालआ संति/अस्थि-वे बालक हैं। तुम चवलो सि/अत्थि-तुम चंचल हो । तुम्हे कुसला अत्थि-तुम लोग कुशल हो। हं पुत्तो म्हि/अत्थि-मैं पुत्र हूँ । अम्हे पमत्ता म्हो/अत्थि-हम लोग प्रमादी हैं। आर्ष प्राकृत में हं के साथ अंसि तथा अम्हे के साथ म्ह, मु, मो, रूप भी प्रयुक्त देखे जाते हैं। प्राकृत सीखें : ३८ For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुवचन و # من عني p من करेन्ति वर्तमानकाल के धातु-प्रत्यय एकवचन इ,ए न्ति, न्ते, इरे सि, से इत्था , ह मो, मु, म कर (करना) धातु के प्रत्यय-सहित रूप प्र.पु. करइ, करए करन्ति, करन्ते, करिरे म.पु. करसि, कारसे करित्था, करह करम करिमो, करिम, करिम वर्तमान काल की धातुओं के 'अ' का जब विकल्प से 'ए' हो जाता है तथा उत्तम पुरुष के प्रत्ययों के पूर्व 'अ' का 'आ' हो जाता है, तब रूप इस प्रकार होते हैं करेइ, करोए करेसि, करेसे करेह करेमि, कारामि करेमो, करामो, कराम वंद (वंदना करना) धातु के रूप एकवचन बहुवचन वंदइ, वंदेइ वंदंति, वंदेति वंदए, वंदेए वंदंते, वंदेते, वंदइरे, वंदेइरे वंदसि, वंदेसि वंदइत्था, वंदेइत्था, वंदह, वंदेह, वंदसे, वंदेसे वंदित्था उ.पु. वंदमि, वंदामि, वंदेमि वंदमो, वंदामो, वंदिमो, वंदेमो, वंदमु, वंदामु, वंदिमु, वंदेमु, वंदम, वंदाम, वंदिम, वंदेम वर्तमानकाल में अन्य धातुओं के रूप भी इसी प्रकार होंगे। कुछ धातुएँ पूर्व के पाठों में दी जा चुकी है। कतिपय धातुओं के मूलरूप इस तरह हैं म فني من و من प्राकृत सीखें : ३९ For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धातु-कोश हरिस (प्रसन्न होना), करिस (खींचना), अरिह (पूजना), देक्ख (देखना), पड (पड़ना, गिरना), जव (जाप करना), वेव (काँपना), मज्ज (मद करना), जुज्झ (युद्ध करना, वह (वध करना), कह (कहना), धाव (दौड़ना), बीह (डरना), नम (प्रणाम करना, झुकना), जिण (जीतना), सुण (सुनना), सुमर (स्मरण करना), कुण (करना), वरिस (बरसना), मरिस (क्षमा करना, सहन करना), जेम (भोजन करना), पुच्छ (पूछना), कुप्प (क्रोध करना), तव (तप करना, संताप होना), बोल्ल (बोलना), विज्ज (विद्यमान होना), बोह (जानना), सोह (शोभित होना), लिह (लिखना), लह (प्रा त करना), डह (जलना), चय (त्याग करना), चल (चलना), गच्छ (जाना), नच्च (नाचना), हण (मारना)। उक्त सब धातुओं के रूप कर +अ+इ>करइ आदि प्रत्यय लगाकर चलेंगे। इन सभी धातुओं में 'अ' विकरण जोड़कर उन्हें स्वरान्त बना लिया जाता है तदनन्तर प्रत्यय लगते है। प्राकृत में मलतः नीचे दी जा रहीं स्वरान्त धातुओं का प्रयोग होता है___दा (देना), झा (ध्यान करना), गा (गाना), धा (दौड़ना), बू (बोलना), णी (ले जाना), ठा (ठहराना), पा (पीना), जा (जाना), खा (खाना), हो (होना), उड्डे (उड़ना) । स्वरान्त धातुओं में प्रत्यय लगाने के पूर्व 'अ' विकरण विकल्प से होता है; यथा दा+ इ + दाइ, हो+इ+होइ, झा+मि>झामि ; दा+अ+ इ>दाअइ, हो+अ+इ>होअइ, झा+अ+ मि>झाअमि (देता है) (होता है) (ध्यान करता है) वाक्य-प्रयोग मोहणो गच्छइ (मोहन जाता है), सो भणइ (वह पढ़ता है), महावीरो जिणो झाअइ (महावीर जिन ध्यान करते हैं), बुहा पुरिसा वेरं न रक्खन्ति प्राकृत सीखें : ४० For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( बुद्धिमान पुरुष बैर नहीं रखते हैं), ते जयउरे वसंति (वे जयपुर रहते हैं), मूढा कामेसु मुज्झति ( मूढ़ काम विषयों में मुग्ध होते हैं), तुमं पोत्थयं पढसि (तुम पुस्तक पढ़ते हो ), तुमं धावसि (तुम दौड़ते हो ), तुम्हे खेत्ते खेलित्था (तुम लोग मैदान में खेलते हो ), तुम्हें कि जाणेह (तुम लोग क्या जानते हो), मत्थयेण महावीरं वंदामि ( सिर से महावीर को प्रणाम करता हूँ या महावीर को मस्तक झुकाता हूँ), अहं सच्चं बोल्लामि ( मैं सच बोलता हूँ), हं कण्णेहिं सुणेमि ( मैं कानों से सुनता हूँ), अम्हे महावीरो पणमामो ( हम महावीर को प्रणाम करते हैं), अम्हे उज्जाणे चिट्ठेसु (हम लोग उद्यान में बैठते हैं) । हिन्दी में अनुवाद कीजिये सो धणं दाअइ । ते नअरं निवसंति । तुमं भोअणं खाअसि । तुम्हे गिरिणो पडित्था । हं मुणिणो अच्चेमि । अहं पोत्थयं भणामि । हं बड्ढमाणं वंदामि । अम्हे इसीणं (ऋषि) कज्जं करिमो | अम्हे भवंतं नमामो । ते गिरं झाअन्ति । को पुरिसो मुणिणो समीवं पढइ ? 1 प्राकृत में अनुवाद कीजिये वह जानता है । वह गाँव जाता है। राम पूजा करता है। वे ध्यान करते हैं । वे घर में रहते हैं । तुम सब बोलते हो। तुम पुस्तक लिखते हो। तुम खेलते हो। तुम महावीर की वन्दना करते हो। मैं पूछता हूँ । पर्वत से गिरता हूँ। हम सामायिक करते हैं । हम प्रतिदिन मंदिर जाते हैं । तात्कालिक वर्तमान के प्रयोग प्राचीन प्राकृत में तात्कालिक वर्तमान के प्रयोग प्रायः नहीं मिलते । कोई क्रिया जब की जा रही होती है तब उसे तात्कालिक वर्तमान कहते हैं; यथा -- वह जा रहा है-सो गच्छंतो अत्थि । यदि प्राकृत में इस प्रकार के वाक्यों का अनुवाद करना हो तो मूल धातु में 'न्त' प्रत्यय जोड़कर कर्ता के वचन के अनुरूप 'अस्थि' या 'संति' क्रिया लगाना चाहिये । उक्त कथन नीचे दिये जा रहे उदाहरण वाक्यों से स्पष्ट हो जाएगा प्राकृत सीखें: ४१ For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्राकृत सीखें: ४२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाक्य-प्रयोग सो कलमेन लिखन्तो अत्थि ( वह कलम से लिख रहा है ) ; ते कज्जं कुता सन्ति (वे काम कर रहे हैं); तुमं गच्छन्तो सि (तुम जा रहे हो ) ; तुम्हे पढन्ता संति (तुम लोग पढ़ रहे हो ) ; अहं पुछन्तो हि ( मैं पूछ रहा हूँ) ; हं पीठम्म उवविसंतो अस्थि ( मैं पीढ़े पर बैठ रहा हूँ ) ; अम्हे सोवाणं अहंता संति (हम सीढ़ियों पर चढ़ रहे है ) ; भवन्ता देवं पणमन्ता संति ( आप लोग देवता को प्रणाम कर रहे हैं ) ; बालआ खेलं कुणन्तो संति ( बालक खेल रहे हैं ) । For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ ८ : भूतकाल के क्रियारूप एवं प्रयोग प्राकृत में भूतकाल के क्रियारूप बहुत सरल हैं। इसमें सभी प्रकार के अतीत प्रयोगों के लिए एक ही प्रकार के क्रियारूपों का प्रयोग होता है, जिसे सामान्य भूत कहते हैं । स्वरान्त धातुओं में तीनों पुरुष और दोनों वचनों में सी, ही और हीअ प्रत्यय जोड़कर भूतकाल के क्रियारूप बनते हैं; यथा पा (पीना) धातु के रूप सर्व पुरुष (पासी (पा+सी) पाअसी (पा+अ+सी) सर्व वचन पाही (पा+ही) पाअही (पा+अ+ही) पाहीअ (पा+हीअ) पाअहीअ (पा+अ+हीअ) हो (होना) झा (ध्यान करना) होसी, होही, होही झासी, झाही, झाही. इसी प्रकार सभी स्वरान्त धातुओं के रूप बनेंगे। व्यंजनान्त धातुओं में सर्वत्र ईअ प्रत्यय जोड़ा जाता है; यथाएकवचन बहुवचन प्र.पु. हसी हसीअ म.पु. हसीअ हसीअ उ.पु. हसी हसीअ इसी प्रकार कर--करीअ, पढ--पढीअ, वंद--वंदीअ आदि धातुओं के रूप प्रयुक्त होंगे । भूतकाल में 'कर' धातु का 'का' रूप भी होता है। उसके रूप इस प्रकार चलेंगे-कासी, काही, काहीअ (किया) । अस् (होना) धातु के तीन पुरुषों और एकवचन में आसि एवं बहुवचन में अहेसि रूप बनते हैं । कहीं-कहीं सर्वत्र आसि रूप का ही प्रयोग होता है। प्राकृत सीखें : ४३ For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाक्य-प्रयोग सो दुद्धं पासी (उसने दूध पिया), पाचओ भोयणं गिम्मीअ (रसोइये ने भोजन बनाया), तुम इदं किं करीअ ? (तुमने यह क्या किया ?), देवदत्तो वाराणसीए पढीअ (देवदत्त ने बनारस में पढ़ा था), ते जणा अण्पं झाहीअ (उन लोगों ने आत्मा का ध्यान किया), अहं रोटिअं खादी (मैंने रोटी खायी), तुमं जिणवाणी पढीअ (तुमने जिनवाणी पढ़ी), गोयमो महावीरं पुच्छीअ (गौतम ने महावीर से पूछा), साहूणो देववंदणं समायरीअ (साधुओं ने देवताओं की वंदना की), सेणिओ नाम नरवइ होत्था (श्रेणिक नाम का राजा था), नेहेण सो दुक्खं पावीअ (उसने स्नेह से दुःख पाया), तित्थयराणं उसहो पठमो होत्था (तीर्थंकरों में ऋषभ प्रथम हुए)। हिन्दी में अनुवाद कीजिये बालआ हसीअ । ते पाणीयं पाहीअ । तुम्हे तत्थ ठाहीअ। अम्हे सच्चं भासीअ । सा गीयं गाहीअ । तुम गामं गच्छीअ । सो अधम्मं काही । मुणिणो झाही । महावीरो विहरीअ । गोयमो सत्थाणि पढीअ। प्राकृत में अनुवाद कीजिये __ मैंने पुस्तक पढ़ी। उसने खेला । तुमने गीत गाया । हमने भोजन किया। उन्होंने सत्य बोला । मयूर नाचे । मेघ बरसा। राजा ने देव को प्रणाम किया। आर्ष प्राकृत में भूतकाल के प्रयोग भतकाल के उपर्यक्त प्रयोगों के अतिरिक्त आगम ग्रन्थों की प्राकृत में कुछ अन्य अनियमित प्रयोग भी देखने को मिलते हैं। (१) प्रायः प्रथम पुरुष के एकवचन में स्था, इत्था, इत्थ तथा बहुवचन में इंसु, अंसु जैसे प्रत्यय धातु के साथ जुड़ते हैं; यथा-- हो+ त्था होत्था, हो + इंसु होइंसु (हए); ने+इत्थानेइत्था, ने+इंसु=नेईसु (ले गये); हस+ इत्थ हसित्थ, हस+ इंसु=हसिंसु (हँसे); री+इत्था=रीइत्था, री+ इंसुरीइंसु (विहार किया); प्राकृत सीखें : ४४ For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसी प्रकार की निम्न क्रियाएँ भी हैं: भुंजित्था, भुंजिंसु (भोजन किया); विहरित्था, विहरिसु (विहार किया); सेवित्था, सेविंसु (सेवन किया); गच्छित्था, गच्छिसु (गये); पुच्छित्था, पुच्छिसु (पूछा) आदि । - (२) कुछ ऐसे प्रयोग भी हैं जो संस्कृत तथा पालि में भी लगभग उसी प्रकार हैं; यथा कर---अकरिस्सं= मैंने किया (अकार्षम् सं.); कर--क-- अकासी=उसने किया (अकार्षीत्); बू-अबवी---वह बोला (अब्रवीत्); वच-अवोच=बोला (अवोचत्); बू--आह आहु बोला (आह); देक्ख-अदक्खू =देखा (अद्राक्षु); हो--अभू, अहू हुआ (अभूत, अभुवन्); वद्--वदासी, वयासी बोला (वदा+सी आर्ष प्रयोग)। वाक्य-प्रयोग गोयमो समणं महावीरं एवं क्यासी (गौतम ने श्रमण महावीर से ऐसा कहा), महावीरो एवं अब्बवी (महावीर ऐसा बोले), वड्ढमाणो जिणो अभू (वर्द्धमान जिन हुए), जिणा एवं कहिंसु (जिन ऐसा बोले), रायगिहे नयरे होत्था (राजगृह नगर था), सीसे विणयेणं आयरिये सेवित्था (शिष्य ने विनय से आचार्य की सेवा की), हेमंते महाबीरे रीइत्था (हेमन्त में महावीर ने विहार किया), गणहरा सुत्ताणि रइंसु (गणधरों ने सूत्र रचे), जिणेसरो अत्थं वागरित्था (जिनेश्वर ने अर्थ कहा), ते एवं अहिंसु (उन्होंने ऐसा कहा)। .. . प्राकृत सीखें: ४५ For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ ९ : भविष्यकाल من ن प्राकृत में भविष्यकाल के लिए प्रयुक्त होने वाले धातुरूपों में एकरूपता नहीं है । धातुओं के साथ प्रयुक्त होने वाले प्रत्ययों से पूर्व 'हि' एवं 'स्स' विकरण प्रयुक्त होते हैं, अतः भविष्यकाल की धातुओं के रूप उभय प्रकार से चलते हैं। भण (पढ़ना, कहना) धातु के रूप (१) 'हिं विकरण एकवचन बहुवचन भणिहिइ भणिहिन्ति म.पु. भणिहिसि भणिहित्था, भणिहिह भणिहिमि, भणिहामि भणिहामो-मु-म (२) 'स्स' विकरण भणिस्सइ भणिस्संति भणिस्ससि भणिस्सह भणिस्सामि भणिस्सामो __ भविष्यकाल में प्रत्यय लगाने के पूर्व धातु से पूर्व धातु के अ कोइ एवं ए विकल्प से होता है । इ होने पर उपर्युक्त रूप बनेंगे और ए होने पर इस प्रकार (३) 'ए' होने पर भणिहिइ, भणेस्सइ भणेहिंति, भणेस्संति भणेहिसि, भणेस्ससि भणेहित्था, भणेस्सथ भणेहिमि, भणेस्सामि भणेहामो, भणेहस्सामो प्र.पु. म.पु. प्र.पु. म.पु. उ.पु. प्राकृत सीखें : ४६ For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) उत्तम पुरुष के प्रत्ययों के आदेश (विकल्प) एकवचन : मि--स्सं--भणिसं, भणेस्सं बहुवचन : मो, मु, म-हिस्सा, हित्था--भणिहिस्सा, भणिहित्था (५) स्वरान्त धातुओं के 'मि' प्रत्यय के रूप कर का ; काहं, कास्सं, कास्सामि, काहामि, काहिमि दा देना ; दाहं, दास्सं, दास्सामि, दाहामि, दाहिमि पा पीना ; --, पास्सं, पास्सामि, पाहामि, पाहिमि (६) सोच्छ (सुनना) आदि धातुओं में 'मि' के रूप सोच्छ (सुनना) ; सोच्छं, सोच्छिस्सं, सोच्छिमि आदि मोच्छ (छोड़ना) ; मोच्छं, मोच्छिस्सं, मोच्छिमि आदि । _भोच्छ (भोगना), वोच्छ (कहना), दच्छ (देखना), गच्छ (जाना), वेच्छ (जानना) आदि धातुओं के रूप इसी प्रकार बनेंगे। .. (७) आर्ष प्राकृत के कुछ अनियमित रूप मोक्खामो (छोड़ेंगे); होक्खामि (होऊँगा); भविस्सामि (होऊँगा); करिस्सइ (करेगा); भविस्सइ (होगा); चरिस्सइ (चलेगा) आदि । वाक्य-प्रयोग सो जिणनाम कहहिइ (वह जिननाम कहेगा); ते बालआ पढहिन्ति (वे बालक पढ़ेंगे); तुमं मंदिरम्मि पत्थणं करेहिसि (तुम मंदिर में प्रार्थना करोगे); तुम्हे वत्थं कोणाहित्था (तुम लोग कपड़ा खरीदोगे); अहं (विज्जालयं गच्छामि (मैं विद्यालय जाऊँगा); अम्हे वराणसिं गच्छहिस्सामो (हम वाराणसी जाएँगे); चलणम्मि तुम पिवासा लग्गहिसि (चलने पर तुम्हें प्यास लगेगी); अहं सीसाणं उवएसं करिस्सं (मैं शिष्यों को उपदेश करूँगा); मक्खिआ महं लेहिस्सइ (मधुमक्खियाँ मधु चाटेंगी); कन्नाओ गाणं काहिन्ति (कन्याएँ गान करेंगी); तं कज्ज काहिसि तो दव्वं दाहं (वह कार्य करोगे तो द्रव्य दूंगा); जइ सो दुज्जणो होही तया परस्स निंदाए तूसेहिइ (यदि वह दुर्जन होगा तो परनिन्दा से संतुष्ट होगा); अम्हे वाणिज्जेण धणियो होस्सह (हम लोग वाणिज्य से धनी होंगे)); प्राकृत सीखें : ४७ For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोसरणे वड्ढमाणो देसणं काही (समवसरण में वर्द्धमान देशना करेंगे); समणा पाणिणो पाणेन न हणिस्संति (श्रमण प्राणियों के प्राण नहीं मारेंगे; अर्थात् श्रमण हिंसा नहीं करेंगे); जिणस्स वयणाई कणेहि सोच्छं (जिन के वचन कानों से सुनूंगा); दाणं दाहं, पुण्णं काहं ततो य दुक्खं छेच्छं (दान दूंगा, पुण्य करूँगा इस तरह दुःखों का छेदन करूंगा); शीलभूओ मुणी जगे विहरिस्सइ (शीलवान मुनि जग में विहार करेगा); जं बोच्छं तं सोच्छिसे (जो कहूँगा उसे तुम सुनोगे); सज्झायसमो तवो ण अत्थि, ण होही (स्वाध्याय के समान तप नहीं है, न होगा)। हिन्दी में अनुवाद कीजिये रामो गामं गच्छहिइ। बालआ पोत्थयं पटहिन्ति । वरसा उत्तमा होहिइ । तुमं अज्ज बोलिस्ससि । सो गीयं गाइस्सइ। सप्पो डसिस्सइ । धम्मेण णरा सिवं लहिस्सन्ति । अहं धम्मै काहामि । वीरो भडो जुद्धं काहिइ। रायगिहं गच्छं, महावीरं वंदिस्सं। ते अम्हाणं कज्जाओ पसण्णा होहिन्ति । प्राकृत में अनुवाद कीजिये हम क्रोध नहीं करेंगे। वह गुरु से पढ़ेगा। मैं सत्य बोलूंगा। वे पाप से डरेंगे। तुम विद्यालय में पढ़ोगे। हम महावीर का उपदेश सुनेंगे। तुम प्रतिदिन सामायिक करोगे। मयूर नाचेंगे। बालक हँसेंगे। आम का वृक्ष फलेगा। प्रत्ययों के स्थान पर ज्ज, ज्जा का प्रयोग प्राकृत में अनुवाद-कार्य की सुविधा की दृष्टि से धातुओं के प्रत्ययों के स्थान पर 'ज्ज' एवं 'ज्जा' का भी आदेश होता है। वर्तमान, भूत एवं भविष्य कालों में एवं सभी पुरुषों और वचनों में 'ज्ज', 'ज्जा' आदेश बाले रूप समान होते हैं; यथा—हो>धातु=होज्ज, होज्जा (होता है, हुआ, होगा आदि अर्थों में); हस>धातु हसेज्ज, हसेज्जा (हँसता है, हँसा, हँसेगा आदि) । प्राकृत सीखें : ४८ For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'हस' आदि व्यंजनान्त एवं 'हो' आदि स्वरान्त धातुओं में जब 'अ' का 'ए' हो जाता है तब रूप इस प्रकार बनते हैं--होएज्ज, होएज्जा; पाएज्ज, पाएज्जा; जीवेज्ज, जीवेज्जा आदि । वाक्य-प्रयोग सो दुद्धं पिवेज्ज (वह दूध पीता है, पियेगा, उसने दूध पिया); अम्हे जीवेज्ज (हम लोग जीते हैं); रामो बुज्झेज्जा (राम समझता है); तुम्हे नच्चेज्जा (तुम लोग नाचे); अहं कज्जं करेज्जा (मैं काम करूँगा); तुम गामं जाएज्ज (तुम गाँव जाते हो)। प्राकृत सीखें : ४९ For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ १० : विधि-आज्ञार्थ एवं क्रियातिपत्ति ___ अमुक क्रिया होनी चाहिये या नहीं, जब ऐसा कोई भाव प्रकट करना हो तो भाषा में विधिलिङ का प्रयोग होता है। प्रायः आचारव्यवहार आदि के संबन्ध में सीख-सिखावन के उद्देश्य से विधि का व्यवहार होता है। वस्तुत: विधि का कार्य सत्कार्य में प्रवृत्ति और असत्कार्य से निवृत्ति करना है। इच्छा-सूचन, योग्यता, आमंत्रण, संभावना, प्रार्थना आदि का बोध कराने के लिए विधि एवं आज्ञार्थक क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है। प्राकृत में विधि और आज्ञा के धातुरूप एक-जैसे होते हैं। इसके कुछ उदाहरण-वाक्य इस प्रकार हैं इच्छामि सो भुजउ (मैं चाहता हूँ वह भोजन करे); वयं पालउ (व्रत का पालन करो); पत्थणा मम आगमं पढामु (मेरी प्रार्थना है कि मैं आगम पढूं); भवं पंडिओ वयं रक्खउ (आप पंडित हैं, व्रत की रक्षा करें); ते जणा अप्पाणं झान्तु (वे लोग आत्मा का ध्यान करें)। प्र.पु. म.पु. 3 विधि एवं आज्ञार्थक प्रत्यय एकवचन बहुवचन उ(तु) हि, सु इज्जसु, इज्जहि, इज्जे प्राकृत सीखें : ५० For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra हस + अ + अ = पठ + अ + मो = www.kobatirth.org उपर्युक्त सभी प्रत्यय लगाने से पूर्व धातु के 'अ' को 'ए' विकल्प से होता है; यथा प्र. पु. म.पु. उ. पु. हसउ, हसेउ पढमो, पढेमो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम पुरुष के प्रत्यय 'मु, मो' लगाने से पूर्व विकल्प से धातु के अ आ, इ होते हैं; यथा – भण् + अ + मु = भणमु > भणामु > भणिमु । इस तरह विधि एवं आज्ञा में धातुरूप इस प्रकार होंगे - हस -- हँसना धातु के रूप एकवचन हसउ, हसेउ सहि, हससु, हसे हि हसमु, हसेमु, हसिमु हसामु बहुवचन हसंतु, हसेतु हसह, हसेह हसमो, हसामो, हसिमो, हमो मध्यपुरुष में इज्जसु आदि प्रत्यय लगने पर हसिज्ज, हसिज्जहि, हसिज्जे रूप बनेंगे। सभी पुरुष एवं वचनों में हस्सेज और हस्सेजा रूप होंगे । धातु-कोश बंध ( बाँधना ) ; चर ( आचरण करना ) ; उज्जम (उद्यम करना ) ; पयट्ट ( प्रवृत्ति करना ) ; आणे ( ले आना ) ; रीय ( निकलना ); वर ( स्वीकार करना ) ; चिट्ठ (ठहरना ); जय ( जीना ); विरम ( विराम लेना ) ; सेव (सेवा करना); पहार ( संकल्प करना); चिण (चुनना ) । वाक्य-प्रयोग तुम्हे सुहं चएह पढणे य उज्जमह (तुम सुख त्यागो और पढ़ने का उद्यम करो ) ; तुम्हे एत्थ चिट्ठेह अम्हे वीरं जिणं अच्चेमो ( तुम लोग यहाँ ठहरो, हम लोग वीर जिन की अर्चना करें ); असत्तनराणं संसगं मा करहि (झूठे आदमी का साथ मत करो ) ; गुरुजणाणं प्राकृत सीखें: ५१ For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निंदा मा करहि (बड़ों की निन्दा मत करो); विणम्मि पट्टि बंधहि (घाव पर पट्टी बांधो); उत्तमठे गवेसउ (श्रेष्ठ अर्थ को खोजो); असंजमं णवरं न सेवेज्जा (असंयम का सेवन कभी मत करो); गोयम, समयं मा पमायउ (हे गौतम, समय है, प्रमाद मत करो); जइ सिवं इच्छेह तया कामेहिन्तो विरमेज्ज (यदि मोक्ष की इच्छा करते हो तो काम-वासनाओं से दूर रहो); सदा अप्पपसंसं परिहरह (आत्म प्रशंसा हमेशा के लिए छोड़ो); उज्जोगं मा मुंचह जइ इच्छह सिक्खिउं नाणं (यदि ज्ञान सीखना चाहते हो तो उद्यम मत छोड़ो)। हिन्दी में अनुवाद कीजिये __सवज्जं वज्जउ मुणि। सच्चं बोल्लेज्जा। धम्म समायरे। सुत्तस्स मागेण चरेज्ज भिक्ख। जइणं सासणं चिरं जयउ। सत्थस्स सारं जाणिज्ज। सज्जणेहि सहिदं विरोहं कयावि न कुज्जा। सयल सत्थाई पढउ। संजमं पालउ, तवं कुणउ । . प्राकृत में अनुवाद कीजिये तुम शास्त्र पढ़ो। वह आत्मा का ध्यान करे। हम संयम का पालन करें। वे कभी हिंसा न करें। मुनि तप का आचरण करें। तुम गरीबों को दान दो। हम लोग सदा सत्य बोलें। उनको धर्मशास्त्र पढ़ाओ। छात्र गुरुकुल में विद्या पढ़ें। वे बड़ों का सम्मान करें। क्रियातिपत्ति जब दो वाक्यों में से प्रथम कथन में कारण तथा दूसरे में उसका फल कहा गया हो तो वहाँ क्रियातिपत्ति का प्रयोग होता है। ऐसे प्रयोगों में एक क्रिया दूसरी क्रिया पर निर्भर प्रतीत होती है; यथाझाणेण पढेज्जा, अण्णथा अणूत्तीण्णो होज्जा (ध्यान से पढ़ो नहीं तो अनुत्तीर्ण हो जाओगे)। क्रियातिपत्ति में तीनों पुरुषों को दोनों वचनों से ज्ज, ज्जा, न्त और माण प्रत्यय धातुओं में जोड़े जाते हैं। पुल्लिग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसकलिंग के रूप में अलग-अलग बनते हैं। प्राकृत सीखें : ५२ For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भण--पढ़ना धातु के रूप पुल्लिग स्त्रीलिंग नपुंसकलिंग भणेज्ज, भणेज्जा भणन्ती, भणमाणी भणन्तं, भणमाणं भणन्तो, भणमाणो भणन्तां, भणमाणा भणन्ताई, भणमाणाई माण प्रत्यय वाले एवं बहुवचन के प्रयोग प्राकृत में कम देखने को मिलते हैं ; न्त और ज्ज प्रत्ययों का ही अधिक प्रयोग हुआ है, होता है। वाक्य-प्रयोग जइ तस्स गुणा हुंता ता नूणं जणो वि तं सलहतो (यदि उसमें गुण होते तो लोग अवश्य ही उसकी प्रशंसा करते); जइ तुम्ह तणयं हं न हरावंतो ता मे सुया मरंती (यदि तुम्हारे पुत्र का मैं हरण न करता तो मेरी पुत्री मारी जाती); जइ रायमग्गम्मि पयासो होज्जा, ता अम्हे खड्डम्मि ण पडेज्जा (यदि सड़क पर प्रकाश होता तो हम गड़हे में न गिरते); रावणो सीलं रक्खंतो तया रामो तं रक्खंतो (रावण यदि शील की रक्षा करता तो राम उसकी रक्षा करते); दीवो होतो तया अंधयारो नस्संतो (दीपक होता तो अन्धकार नष्ट हो जाता); जइ हं कम्म ण कुणेज्जा ता लोयस्स विणासो होज्जा (यदि मैं कर्म न करूं तो लोक-भ्रमण नष्ट हो जाए); सज्झायं कुव्वंतो णरो विणएण समाहिओ हवदि (स्वाध्यायरत मनुष्य विनय से युक्त हो जाता है); अप्पणो हियं इच्छंतो अप्पाणं विणए ठवेज्ज (आत्मा का कल्याण चाहते हुए आत्मा को विनय में लगाओ)। प्राकृत सीखें : ५३ For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ : ११ कृदन्त रूप एवं उनके प्रयोग प्राकृत में कई प्रकार के कृदन्तों का प्रयोग होता है। वर्तमान, भूत, भविष्य, हेत्वर्थ, विध्यर्थ आदि कृदन्तों के रूप विभिन्न प्रत्यय जोड़कर बनाये जाते हैं । कृदन्तों के प्रयोग से वाक्य रचना में सरलता होती है तथा किसी भी भाव या कथन को स्पष्ट रूप में व्यक्त किया जा सकता है । पुल्लिंग हसन्तो, हसेन्तो हसमाणो, हसेमाणो वर्तमान कालिक कृदन्त एक ही काल में कर्त्ता जब एक साथ दो क्रियाओं को संपन्न करता हो तब वर्तमानकालिक कृदन्त का प्रयोग होता है। प्रथम धातु में 'न्त' और 'माण' जोड़कर क्रिया रूप बनाया जाता है । इन प्रत्ययों के जुड़ने पर धातु के 'अ' का विकल्प से 'ए' हो जाता है । स्त्रीलिंग में 'ई' प्रत्यय जोड़ा जाता है । धातुओं के रूप इस प्रकार बनते हैं ह्स धातु हंसता हुआ / हुई नपुंसकलिंग हन्तं हन्तं हसमाणं, हसेमाणं हो धातु होता हुआ / हुई होतं, होमाणं स्त्रीलिंग हसन्ती, हसेन्ती, हस हसमाणी, हसेमाणी, हसेई होतो, होमाणी होन्ती, होमाणी, होई भाववाच्य, कर्मवाच्य, प्रेरणार्थक आदि के प्रत्यय लगाने से वर्तमान कृदन्त के अन्य रूप बनते हैं; यथा- भण् + इज्ज +न्त–भणिज्जतं = पढ़ा जाता हुआ भण् + ईअ + माण =भणीअमाणो गंथो = पढ़ा जाता हुआ ग्रन्थ प्राकृत सीखे : ५४ For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भण्+ ईअ+ई =भणीअई गाहा=पढ़ी जाती हुई गाथा। भण् + आवि+ इज्ज =न्त+भणाविज्जन्तो मुणी=पढ़ाया जाता हुआ मुनि, इत्यादि । वाक्य-प्रयोग परायत्तो ससंतो न जीवइ (परतन्त्र व्यक्ति साँस लेता हुआ भी जीता नहीं है); कणु सदा हसंती बोल्लइ (कनु सदा हंसती हुई बोलती है); मेहो गज्जतो बरसइ (मेघ गर्जता हुआ बरसता है); हं पाढं पढन्तो सव्वरत्ति जग्गीअ (मैं पढ़ते हुए सारी रात जागता रहा); अझीयमाणो छत्तो सुहं पावइ (पढ़नेवाला छात्र सुख पाता है); गुरुणा धम्म कुणमाणाणं सावगाणं उवएसो दिण्णो (गुरु के द्वारा धर्म करते हए श्रावकों को उपदेश दिया गया)। भूतकालिक कृदन्त प्राकृत में भूतकालिक कृदन्तों का प्रयोग अधिक पाया जाता है। धातु में 'अ' (क्त>अ) प्रत्यय जोड़ने से भूतकालिक कृदन्त रूप बनता है तथा धातु के अन्त्य 'अ' को 'इ' हो जाता है; यथा गम् + इ-+-अ== गमिओ (जाकर, गया हुआ) चल+इ+अ =चलिओ (चलकर, चला हुआ) कर्+इ+अकरिओ (करके) हो+इ+अ==होइअ (होकर) इत्यादि । प्रेरणार्थक भूतकालिक कृदन्तों के लिए धातु में आवि और इ प्रत्यय जोड़कर फिर 'अ' प्रत्यय जोड़ते हैं; यथा हस् + आवि + अहसाविअं (हँसाकर) ; कर+इ+अकारि (करवाकर) अ को दीर्घ । सम्बन्धसूचक भूतकालिक कृदन्तों में तुं, अ, तूण, तुआण, इत्ता, इत्ताण, आय, आए इनमें से कोई भी एक प्रत्यय लगाया जाता है। धातु के 'अ' को इ अथवा ए आदेश होता है; यथा प्राकृत सीखें : ५५ For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हस+तं हसिउं, हसेउं (हंसकर) भण+तूण=भणिऊण, भणेऊण (पढ़कर) कर+इत्ता=करित्ता (करके) इत्यादि । प्राकृत में कुछ भूतकालिक कृदन्त अनियमित रूप में भी प्रयुक्त हुए हैं तथा कुछ ध्वनि-परिवर्तन के आधार पर ; यथा.: काउं, कटु, काऊण (कर्) करके ; घेत्तुं, घेत्तूणं, घेत्तुआण (गह) ग्रहण कर; दठ्ठ, दळूण, दळुआणं (दरिस्) देखकर ; मोत्तुं, मोत्तूणं (मुंच) त्यागकर; किच्चा, किच्चाण (कृत्वा) करके; नच्चा, नच्चाण (ज्ञात्वा) जानकर ; बुज्झा (बुद्ध्वा) जानकर; वंदिता (वंदित्वा) वन्दना करके; सोच्चा, (श्रुत्वा) सुनकर ; आहच्च (आहत्त्वा) आघात करके; परिन्नाय (परिज्ञाय) जानकर; चइत्ता (त्यक्त्वा) छोड़कर। कडं (कृतम्) किया हुआ; मडं (मृतम्) मरा हुआ; अक्खायं (आख्यातम्) कहा हुआ; आणत्तं (आज्ञप्तम् ) आज्ञा किया हुआ; सुयं (स्मृतम्) स्मरण किया हुआ; सुयं (श्रुतम्) सुना हुआ इत्यादि। वाक्य-प्रयोग पियंवदा जणणीए भणिया (प्रियंवदा ने माँ से कहा); तीए राया तुट्ठो, दिन्नो वरो (राजा उससे प्रसन्न हुआ (और उसे) वर दिया); बालिआओ विज्जालयत्तो घरं गमिदा (बालिकाएँ शाला से घर गयीं); अम्हेहिं पच्चूसे पहाणं करिओ (हम लोगों के द्वारा प्रात: स्नान किया गया); लछिमणेण मेहणादं मरिओ (लक्ष्मण के द्वारा मेघनाद मारा गया); सो निवस्स गेहे भोयणाय गओ (वह राजा के घर भोजन के लिए गया); अस्स सरूवं मए पचक्खं दिट्ट (इसका स्वरूप मैंने प्रत्यक्ष देखा है); सज्जणो सत्थवयणं सोच्चा सहइ (सज्जन व्यक्ति शास्त्रवचन को सोचकर बोलता है); मणूसा पुण्णं किच्चा देवा हुंति (मनुष्य पुण्य कर के देव होते हैं); इंदो महावीरं वंदित्ता थुणइ (इन्द्र महावीर की वन्दना कर स्तुति करता है); जेण इमा पुहवी हिडिऊण प्राकृत सीखें : ५६ For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिट्ठा सो नरो वियखणो होइ (जिसने इस पृथ्वी को भ्रमण कर देखा है वह मनुष्य विचक्षण है); कालसप्पेण खाइज्जन्ती काया केण धरिज्जइ (कालसर्प द्वारा खायी जाती हुई काया किसके द्वारा रक्षित होगी); एगो जायइ जीवो, एगो मरिऊण तह उवज्जेइ (जीव अकेला जन्मता है, अकेला मर कर वैसा ही उत्पन्न होता है); रामो मज्झं कज्जं काऊण गाम गच्छीअ (राम मेरा काम करके गाँव गया है); पुरायण पाठं सुमिरिऊण अग्गपाढो पढसु (पुराना पाठ याद करके आगे का पाठ पढ़ो); अहं भवन्तं पासिऊण पसन्नो अस्थि (मैं आपको देखकर प्रसन्न हूँ); ते तत्थगंतूण भयवंतं वंदिऊण नियएसु ठाणेसु सन्निविट्ठा (वे वहाँ जाकर भगवान की वन्दनाकर अपने-अपने स्थान पर बैठ गये); तया महावीरेण एवं कहिअं (तब महावीर ने ऐसा कहा)। भविष्यकालिक कृदन्त निकटवर्ती भविष्य में होने वाली क्रिया को सूचित करने के लिए भविष्यकालिक कृदन्तों का प्रयोग होता है । इस्संत, इस्समाण एवं इस्सई प्रत्यय जोड़कर ये कृदन्त बनाये जाते हैं तथा प्रेरणार्थक भविष्य कृदन्त में 'आवि' प्रत्यय के बाद अन्य प्रत्यय जोड़े जाते हैं; यथा करिस्संतो, करिस्समाणो (करता होगा) करिस्सई, करिस्संती, करिस्समाणी (करती होगी) कराविस्संतो, कराविस्समाणो (करवाता होगा)। विधि कृदन्त औचित्य, आवश्यकता, सामर्थ्य, योग्यता आदि भाव प्रगट करने के लिए विधि कृदन्त का प्रयोग होता है। इसमें कर्ता में तृतीया एवं कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है। धातु में अव्व, अणिज्ज, अणीअ प्रत्यय जोड़े जाते हैं; यथा हसिअव्वं, हसणिज्ज, हसणीअं (हंसने योग्य, हँसना चाहिये) ..करिअव्वं, करणिज्ज, करणीअं (करने योग्य, करना चाहिये)। , प्रेरक विधि कृदन्त में 'आवि' प्रत्यय पूर्व में जोड़ा जाता है; प्रथा प्राकृत सीखें : ५७ For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हसाविअव्वं, हसावणिज्जं, हसावणीयं ( हँसाने योग्य, हँसाना चाहिए ) 1 अनियमित विध्यर्थ कृदन्त के कुछ रूप कज्जं करने योग्य काअव्वं = कर्त्तव्य करने योग्य भोत्तव्वं = भोगने योग्य गुज्झं == छुपाने योग्य गेज्झं ग्रहण करने योग्य भव्वं = होने योग्य दट्ठब्वं = देखने योग्य अवज्जं नहीं बोलने योग्य हेत्वर्थ कृदन्त अभीष्ट कार्य के लिए कर्त्ता जब दो क्रियाएँ एक साथ करता है तब हेत्वर्थ कृदन्त की क्रिया प्रयुक्त होती है। मूल धातु में उं (तुं ), तए प्रत्यय लगाने से हेत्वर्थ कृदन्त के रूप बनते हैं। धातु के 'अ' को विकल्प से 'इ' अथवा 'ए' हो जाता है; यथा हस + उं हसिउं, हसेउं ( हँसने के लिए ) कर + त्तर = करितए, करेत्तए ( करने के लिए) प्रेरक हेत्वर्थ कृदन्त में 'आवि' प्रत्यय और जुड़ जाता है; यथाभणाविरं ( पढ़ाने के लिए) । भण् + आवि + उं कर्त्त सूचक कृदन्त ८ लगाने से क्रिया विशेष के कर्त्ता का बोध धातु में 'इर' प्रत्यय कराया जाता है; जैसे भम् + इ = भमिरो ( भ्रमण करने वाला, भ्रमणशील ) हस् + इ = हसिरो (हँसनेवाला, हसनशील ) हसिरा, हसिरी ( हँसनेवाली ) । कुछ अनियमित कर्त सूचक कृदन्त - पायओ = पकानेवाला, रसोइया भेत्ता - भेदन करनेवाला हंता = मारनेवाला, इत्यादि । वाक्य-प्रयोग चकमाय योयस्तो हं पिआ आहूओ ( घूमने जाने वाले मुझको पिता ने बुलाया ) ; मरिस्संतो पिआ पुते आहुज्ज उवाअ ( पिता मरने प्राकृत सीखें: ५८ विज्जं = विद्वान् लेहओ – लेखक For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लगा तो उसने पुत्रों को बुलाकर कहा ) ; वीयरायेहिं जणेहि जसकामना ण कुणेअव्वा ( वीतरागों को यश की कामना नहीं करना चाहिये ) ; पाइयभासा अवस्सं पढिअव्वा ( प्राकृत भाषा अवश्य पढ़ना चाहिये ) ; पच्चू से भगवन्ताणं पत्थणा करणीआ ( प्रातः काल भगवान् की प्रार्थना करना चाहिये); तेण इदं पोत्थयं अवस्सं पढावितव्वं ( उससे यह पुस्तक अवश्य पढ़वाना चाहिये ) ; अकरणिज्जं न कायव्वं करणीयं च कज्जं न मोत्तव्वं ( अकरणीय कार्य न करने चाहिये और करने योग्य कार्य छोड़ना न चाहिये ) ; सव्वेजीवा जीविउं इच्छन्ति न मरित्तए तओ जीवा न हंतव्वा (सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं; अतः जीवों को नहीं मारना चाहिये); कहउ, जं अहुणा भवन्तो कि पढिउं इच्छइ ( कहिये, अब आप क्या पढ़ना चाहते हैं ) ; ते मंगलकाले रोविउंण उचियं (मंगल के समय में तुम्हारा रोना ठीक नहीं है); अप्पाणं पायासिउं अयं अवसरो ( अपने को प्रकट करने का यही अवसर है ) । हिन्दी में अनुवाद कीजिये पच्चूसे जिणं अच्चणिज्जं । बालओ पइदिणं पढिअव्वं । रत्तीए चिरं न जागरिअव्वं । सुच्छ जलं पिज्जेअव्वं । अप्पाण हेतव्वो । पाणिवहो मोत्तव्वो । अहियगामिणि भासं न भासेज्जा | सो एवं चितऊण कूडवेसं काऊ रयणी तत्थेव ठिओ । अवसरं लहिऊण तं अमयकूवयं गिण्हिऊण हत्थिणाउरे आगओ । तेण चितियं-- कि कुणेअव्वं मए । भाववाच्य एवं कर्मवाच्य प्राकृत में किसी भी धातु को भावप्रधान अथवा कर्मप्रधान बनाने के लिए 'अ', 'ई' और 'इज्ज' प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय लगाया जाता है; फिर पुरुषवाचक एवं कालवाचक प्रत्यय लगाये जाते हैं; यथा कह + ईअ== कहीअ + इ = कही अइ - कहा जाता है । = दा + इज्ज - दा इज्ज + इ = दाइज्जइ - दिया जाता है । हस + ई = हसीअ + इ = हसीअइ-हँसा जाता है । For Private and Personal Use Only प्राकृत सीखें: ५९ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इसी प्रकार भूत, विधि, आज्ञा आदि के प्रत्यय जोड़कर भाव एवं कर्मवाचक धातुरूप बनाये जाते हैं । कुछ अनियमित धातुओं का प्रयोग भी प्राकृत में प्राप्त होता है; यथा भाववाच्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीसइ ( दी सिज्जइ ) – देखा जाता है । = बुच्चइ ( वुच्चिज्जइ ) == कहा जाता है। भण्णते ( भण्णाविइ) = कहलाया जाता है । णज्जते (णज्जा विइ) = जाना जाता है । सुन्वते ( सुव्वा विइ) = सुना जाता है, इत्यादि । वाक्य-प्रयोग प्राकृत सीखें: ६० तुए हसिज्जइ ( तुम्हारे द्वारा हँसा जाता है); बालेण रत्तीए जग्गिज्जइ ( बालक द्वारा रात में जगा जाता है ) । कर्मवाच्य तेण भणिज्जइ गंथो ( उसके द्वारा ग्रन्थ पढ़े जाते हैं ) ; कुंभारेण घडो कुणीअइ ( कुम्हार के द्वारा घड़ा बनाया जाता है); रामेण अप्पाणी झाइज्जई (राम के द्वारा आत्मा का ध्यान किया जाता है ) । For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठ १२ : संधि, समास एवं अन्य प्रयोग प्राकृत में संधि और समास की व्यवस्था प्रायः वैकल्पिक है, नित्य नहीं । बोलचाल की भाषा होने से समास-शैली के प्रयोग की प्रवृत्ति कम है; किन्तु साहित्य में जिस प्राकृत का प्रयोग हुआ है उसमें संधि, समास, तद्धित, विशेषण आदि अनेक प्रकार के पदों और शब्दों का प्रयोग हुआ है । इन प्रयोगों की जानकारी यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है । संधि- प्रकरण दो शब्दों के स्वर अथवा व्यंजनों का एक साथ मिल जाना अथवा एक दूसरे में लीन हो जाना संधि कहलाता है। हेमचन्द्राचार्य ने प्राकृत में संधि-नियमों का विधान किया है । स्वरसंधि, व्यंजन संधि, प्रकृतिभाव, अव्ययसंधि आदि प्रकार से प्राकृत में संधि - कर्म होता है । स्वर सन्धि आ - जीव + अजीव जीवाजीव; विसम + आयव = 1 ई - मुणि + ईसर मुणीसर; रमणी + ईस – रयणीस; अ - गअ + इंदो – गइंदो; = उ — रयण + उज्जलं – रयणुज्जलं; ऊ— बहु + उपमा = - बहूपमा ; ओ - गूढ + उअरं = गुढोअरं । प्रकृतिभाव प्राकृत शब्दों के स्वरों में कहीं-कहीं संधि न होकर यथास्थिति रह जाती है; जैसे जइ + एवं = जइएवं ; अहो + अच्छरिअं = अहोअच्छरिअं ; =विसमायव; For Private and Personal Use Only प्राकृत सीखें: ६१ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रयणी+अर=रयणीअर; एगे+आया=एगेआया। अव्यय स्वरसन्धि अ का लोप-- केण+अपि =केण वि; मरणं + अपि =मरणं वि; इका लोप--- नत्थि+ इति=नत्थि ति; किं + इति=किं ति; चन्दो+इव = चन्दो व्व। व्यंजन सन्धि अनुस्वार-जलम् -:: जलं, गिरिम् =गिरि। विकल्प---उसभम् - अजिअम् =उसभं अजिअं; उसभमजिअं (ऋषभमजितम्) अन्तिम व्यंजन का अनुस्वार-यत्--जं, तत्=तं, सम्यक् --सम्म, साक्षात् == सक्खं । अनुस्वार का आगम-वक्रम् == वकं, उपरि=उवरि। अनुस्वार का लोप---विंशतिः ==बीसा, सिंधो-सीहो, वं---एवं कथं=कह। अन्त्य व्यंजन का मेल-किम् + इहं= किमिहं, यद् + अस्ति =यदत्थि। प्राकृत में संधि का विचार सदैव प्रसंग तथा शब्द के अर्थ को ध्यान में रख कर करना चाहिये क्योंकि यह वैकल्पिक व्यवस्था है। समास थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ बताने वाली प्रक्रिया को समास कहते हैं। समास के प्रयोग से वाक्य-रचना में सौन्दर्य आ जाता है। प्राकृत में सरल समासों का ही प्रयोग हुआ है। प्राकृत-व्याकरणकारों ने इसके लिए नियम नहीं बनाये हैं; अतः प्रयोग के अनुसार प्राकृत के समासों को समझा जा सकता है। समास के निम्न छह भेद हैं प्राकृत सीखें : ६२ For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अव्ययीभाव जिसमें पूर्वपद के अर्थ की प्रधानता हो तथा अव्ययों के साथ जिसका प्रयोग हो वह अव्ययीभाव समास है; यथा--गुरुणी समीवं उवगुरु ( गुरु के पास ) ; जिणस्स पच्छा = अणुजिणं ( जिन के पीछे ) ; दिणदिणं पइ = पइदिणं ( प्रतिदिन ) । तत्पुरुष = जिसमें उत्तरपद के अर्थ की प्रधानता होती है तथा पूर्वपद से द्वितीया विभक्ति से लेकर सप्तमी विभक्ति तक का लोप होता है उसे तत्पुरुष समास कहते हैं । यथा -सुहंपत्तोः - सुहपत्तो ( सुख को प्राप्त), गुणेहिं संपण्णो = गुणसंपण्णो ( गुण से युक्त ), बहुजणस्स हितो: बहुजणहितो ( सब जनों के लिए हित ), संसराओ भीओ = संसार भीओ (संसार से भयभीत ), देवस्स मंदिरं – देवमंदिरं ( देव का मंदिर ), कलासु कुसलो - कलाकुसलो ( कलाओं में कुशल ) । = कर्मधारय = - विशेषण और विशेष्य के समास कर्मधारय कहलाते हैं; यथामहन्तो अ सो वीरो महावीरो, चंदो व्व मुहं चंदमुहं, संजमो एव धणं संजमधणं; इत्यादि । द्विगु समास प्रथम पद यदि संख्या सूचक हो तो उसे द्विगु समास कहते हैं; यथा - तिण्हं लोगाणं समूहो - तिलोगं ( तीन लोक ), चउण्हं कसायाणं समूहो : : चउक्कसाय ( चार कषाय), नवण्हं तत्ताणं समाहारो= नवतत्तं (नौ तत्त्व ) । द्वन्द्व समास दो या दो से अधिक संज्ञाएँ जब एक साथ जोड़े के रूप में 'प्रयुक्त हों तो उसे द्वन्द्व समास कहते हैं; यथा- पुण्णं य पावं य= पुष्णपावाई, सुहं य दुक्खं य= सुहदुक्खाई, नाणं य दंसणं य चरितं यनाणदंसणचरितं । For Private and Personal Use Only प्राकृत सीखें: ६३ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुब्रीहि जब दो या दो से अधिक शब्द मिलकर किसी अन्य का विशेषण बनते हों तो उस समास को बहुब्रीहि कहते हैं; यथा-जिओ कामो जेण सो=जिअकामो (काम का जीतने वाला), न अत्थि भयं जस्स सो=अभयो (निडर), पीअं अंबरं जस्स सो-पीअंबरो (पीले वस्त्र वाला), पुण्णेण सह-सपुण्णो (पुण्यसहित), जिआ परीसहा जेण सो=जिअपरीसहो (परीषह जीतने वाला)। तद्धित प्रयोग प्राकृत में कुछ ऐसे शब्दों का भी प्रयोग होता है, जो तद्धित के प्रत्ययों द्वारा निर्मित होते हैं । तद्धित के कुछ शब्द इस प्रकार हैं : केर-अम्हकेरं हमारा, तुम्हकेरं तुम्हारा, परकेरंपराया। इल्ल--गामिल्लं ग्रामीण, पुरिल्लं =नागरिक । उल्ल--अप्पुल्लं=आत्मा में उत्पन्न, तरुल्लं=वृक्ष के नीचे उत्पन्न हुआ। अ--सिव+अ (सेवो)=शिव का पुत्र शंव, दसरह +अ (दासरहो)=दशरथ का पुत्र । तण--मणअ+त्तण>मणुअत्तणं = मनुष्यता, पीण+त्तण> पीणत्तण स्थूलता, बाल+त्तण. बालत्तण=बचपन। हुत्तं-एयहुत्तं =एक बार, दुहुत्तं दो बार, सयहुत्तं=सौ बार। आल-रसालो= रसवाला, जटालो=जटावाला। आलु-दया+-आलु>दयालु =दयावाला, लज्जा + आलु> लज्जालु लज्जावाला। इल्ल--छाइल्लो छायावाला, घामिल्लो घामवाला। मंत-हणुमंतो-हनुमान, सिरीमतो=धनवान, भक्तिवंतो= भक्तिवाला, इत्यादि। प्राकृत सीखें : ६४ For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अईव अणन्तर ईसि कओ असई इह कहं जत्थ जाव तए चिअ, चेअ दुओ सइ —अतीव --पश्चात् -थोड़ा इ तारिस जेत्तिअं - कहाँ से, - अनेक बार -यहाँ - कैसे -- जहाँ --जब तक -तब -- और भी -दो प्रकार -- एक बार --कोई - उसके समान - जितना केत्तिअं - कितना www.kobatirth.org अव्यय अण्णा अहा एत्थ कह दाणि एयावया जइ णवर तहा जओ पुहं नउणा सणियं जारिस Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -अन्यथा -- जिस प्रकार —यहाँ कहाँ - इस समय - इतना कब —जो - परन्तु, केवल —उस तरह —क्योंकि For Private and Personal Use Only --अलग -- - फिर से नहीं —धीरे-धीरे -- जिसके समान —उतना -- इतना | तेत्तिअं एत्तिअं विशेषण प्राकृत वाक्यों में कई प्रकार के विशेषणों का प्रयोग होता है। विशेषण के लिंग, वचन और विभक्ति प्रायः विशेष्य के अनुसार होते हैं । = कुछ गुणवाचक विशेषण होते हैं; यथा-1 - किसणी - काला, पीतो = पीला, रत्तो = लाल, उत्तमो = श्रेष्ठ, निउणो = निपुण; आदि । कुछ सार्वनामिक विशेषण होते हैं; यथा — यह, वह, वे ये, इन, उन आदि । पु., स्त्री, नपुं. में इनके भिन्न रूप होते हैं (इन्हें हम सर्वनाम के पाठ में पढ़ चुके हैं) । प्राकृत सीखें: ६५ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नपुं. संख्यावाची विशेषण कई प्रकार के होते हैं। एक संख्या शब्द तीनों लिंगों में भिन्न रूप वाला है; यथाएकवचन बहुवचन एगो, एओ एगे, एक्के स्त्री. एगा, एआ एगाओ, एक्काओ एगं, एअं एगाणि, एआणि शेष सभी संख्यावाची शब्द तीनों लिंगों में समान होते हैं और उनके बहुवचन में ही रूप बनते हैं। दोण्णि, विणि =दो; तिणि तीन; चत्तारो, चउरो=चार; पंच=पाँच; छ=छ; मत्त-=सात; अट्ठ-आठ; णव=नी; दह, दस दस। एगारह, वारह, तेरह, उद्दह, पण्णरह, सोलह, सत्तरह, अट्ठारह, एगूणवीसा, वीसा आदि संख्याएँ प्राकृत में प्रयुक्त होती हैं। क्रमवाचक संख्याओं के रूप इस प्रकार हैंपढमं पहला वीओ,दुइयो --दूसरा, तइओ,तच्चो --तीसरा, चउत्थो -चौथा, पंचमो --पाँचवाँ सट्ठो -छठा, सत्तयो --सातवाँ अट्टयो -आठवां, नवमो ---नौवाँ दहमो,दसमो -दसवाँ, इत्यादि । तुलनात्मक विशेषण इस प्रकार हैंपिअ (प्रिय) पिअअर (प्रियतर) पिअअम (प्रियतम) (सबसे प्रिय) कणीअस कणिठं (सबसे छोटा) गरु गरीअस (सबसे बड़ा) धणी धणिअर धणिअम (सबसे धनी) वाक्य-प्रयोग उत्तमो बालओ पढइ (अच्छा लड़का पढ़ता है), रत्तो कुक्कुरो धावइ (लाल कुत्ता दौड़ता है), इमा बाला गिहं गच्छइ (यह लड़की घर अप्प गरिट्ट प्राकृत सीखें : ६६ For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाती है), एअं फलं महुरं अत्थि (यह फल मीठा है), एगो बालओ भणइ (एक बालक कहता है), एगा बालिआ गच्छइ (एक लड़की जाती है), तिणि मित्ताणि निवसत्ति (तीन मित्र रहते हैं), तुमं ममत्तो कणीअसो अत्थि (तुम मुझ से छोटे हो), सईसु सीया सेट्ठा अत्थि (सतियों में सीता श्रेष्ठ है), पुण्णस्स मग्गो सेयसो होई (पुण्य का मार्ग कल्याण का होता है), कच्छाए तस्स दुइयं थाणं अत्थि (कक्षा में उसका दूसरा स्थान है), इम कण्णा सत्ताराहण्हं वरिसाणं अत्थि (यह सत्रह वर्ष की कन्या है), गिरीसु हिमालयो उच्चअमो अत्थि (पर्वतों में हिमालय सबसे ऊँचा है), वत्थुसहावो धम्मो (वस्तु-स्वभाव धर्म है), लोभा-इट्ठोजीवो सब जगेण विन तिप्पेदि (लोभ से आकृष्ट जीव सारे जग से भी संतुष्ट नहीं होता), गामिल्लो चउरो अत्थि (ग्रामीण चतुर हैं), गव्विरो उण्णतिं ण लहइ (घमंडी उन्नति नहीं कर सकता है), एत्तिअं अहियं संचयं वरं णत्थि (इतना अधिक संचय अच्छा नहीं है) । हिन्दी में अनुवाद कीजिये हत्थिणाउरे नयरे सूरनामा राययुत्तो गुण-रयणसंजुत्तो वसइ । तस्स भारिया गंगाभिहाणा । सीलालंकिया सुमइनामा तेसिं धूया । सा कम्मपरिणामवसओ जणअ-जणणी-भाया-माउलेहिं पुढो-पुढो (अलगअलग) वराणंदिन्ना। चउरो वि ते वरा एगम्मि चेव दिण्णे परिणेउं आगया। परस्परं कलहं कुणंति । तओ तेसि विसमे संगामे जायमाणे बहुजणक्खयं दट्ठ ण अग्गिम्मि पविटा सुम इकन्ना। नीए समं निविडमोहेण एगो वरो वि पविट्ठो। एगो अत्याणि गंगप्पवाहे खिविउ गओ। एगो चिआरक्खं तत्थेव जलपूरे खिविऊण तदुक्खेण मोहगहिओ महीयले हिंडइ । चउत्थो तत्थेव ठिओ ताणं रक्खंतो पइरिणं एगमन्नपिंडं मुअन्तो कालं गमइ। प्राकृत में अनुवाद कीजिये - कर्मों के निमित्त से चारों दुलहे फिर एक साथ मिल गये। उस कन्या के साथ विवाह करने के विवाद को लेकर वे राज दरबार गये। चारों ने प्राकृत सीखें : ६७ For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजा से अपनी-अपनी बात कही। राजा ने मंत्रियों से कहा- 'इनके विवाद को समाप्त कर किसी एक को वर प्रमाणित कीजिये' । मंत्रियों ने सभी उपाय सोचे । तब एक मंत्री ने कहा- 'यदि आप मानें तो मैं विवाद का हल करूँ' । उन्होंने अनुमति दी । प्राकृत सीखें: ६८ प्राकृत के इन पाठों को नियमित सीखने वाले पाठक प्राकृत का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त कर चुके होंगे। उन्हें चाहिये कि वे आगम ग्रन्थों व प्राकृत साहित्य के अन्य ग्रन्थों का पठन-पाठन क्रमश: करते रहें । कोई भी भाषा उस साहित्य के निरन्तर अध्ययन करते रहने से ही भीखी जा सकती है । For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिशिष्ट १ : प्राकृत वर्णमाला स्वर : ह्रस्व - अ, इ, ए; दीर्घ-आ, ई, ऊ, ए, ओ; अनुस्वारव्यंजन : क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ (कण्ठ्य ) च वर्ग - च् छ् ज् झ् अ (तालव्य) ट वर्ग - ठ् ड् ढ् ण (मूद्धन्य) त वर्ग - त् थ् द् ध् न् (वन्त्य ) प वर्ग - प् फ् ब् भ् म् . (ओष्ठ्य ) अर्धस्वर : य् (तालव्य), र (मूर्द्धन्य), ल (दन्त्य), व (दंतौष्ठ्य) ऊष्माक्षर : स् (दंत्य), ह (कण्ठ्य) प्राकृत में सामान्यतः होने वाले स्वर-परिवर्तन १. भारतीय आर्य भाषा के प्राय: सभी स्वर अन्य स्वरों में परिवर्तित होते हैं; यथा-अ>आ, इ, ई, उ, ए, ओ (प्रकटम्>पाअडं, मृदंग> मुइंगो, हर:>हीरो)। २. ऋ, ऋ, ल, ऐ और औ का सर्वथा लोप । ३. ऋ के स्थान पर अ, इ, उ, ए, और ओ आते हैं; यथा-तृणम् >तणं, कृषि>इसी । ४. ऐ और औ के स्थान पर ए और ओ प्रयुक्त हैं, यथा-नीचस्>नीचअं, पौर:>पउरो। ५. ह्रस्व स्वर प्राय: सुरक्षित हैं। ६. विसर्ग का प्रयोग नहीं हुआ है, किन्तु यदि अ के बाद वह आया है तो अ सहित उसका ओ हो गया है; यथा-सर्वतः>सव्वओ; पुरत:> पुरओ; यत:>जओ। ७. स्वर-रहित एकाकी व्यंजन प्रयुक्त नहीं हैं। यथा-राजन् >राय; सरित्>सरिया; तमस्>तमो। __ असंयुक्त या सरल व्यंजनों में सामान्यतः होने वाले परिवर्तन १. आरंभ के श्, ए, स् में परिवर्तित हैं; यथा-शकट:>सगडो। २. अर्द्धस्वर य का ज हुआ है; यथा-युवराज>जुवराज । ......... प्राकृत सीखें ६९ For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३. शब्द के मध्य में आये असंयुक्त क्, ग्, च्, ज्, त्, द्, प्, य, व् प्रायः लुप्त हैं तथा शेष अ अथवा आ का य अथवा या हो गया है; यथाबालक:>बालओ, नगरम् >नयरं, आचार>आयार; पूजा> पूया; माता>माया; कदली>कयली; रिपु>रिउ । ४. शब्द-मध्य के असंयुक्त रु, च्, थ्, ध्, फ्, म का प्रायः ह हुआ है यथा-मुख>मुह; लघु>लहु; शपथ>सपह; मधुकर>महुयर; मुक्ताफल > मुत्ताहल । . . ५. शब्द-मध्य असंयुक्त न का ण हुआ है; यथा-नयन >नयण । ६. अनुस्वार का समीपस्थ व्यंजन अपरिवर्तित है; यथा-संघ>संघ; शंकर>संकर; प्रसंग>पसंग । ७. पदान्त व्यंजन लुप्त हैं तथा अन्तिम म् का अनुस्वार हुआ है; यथा पश्चात् >पच्छा; तस्मात्>तम्हा । परिशिष्ट २ : प्राकृत व्यंजनों में सामान्यतः होने वाले परिवर्तन क्त-क्क : मुक्त-मुक्क ड्ग-ग्ग : खड्ग-खग्ग क्य-क्क : वाक्य-वक्क द्ग-ग्ग : मुद्ग-मुग्ग (मूंग) क्र-क्क : चक्र-चक्क ग-रग : वर्ग-वग्ग क्ल-क्क : विक्लव-विक्कव ल्ग-ग्ग : वल्ग-वग्ग (भयभीत, उद्विग्न) घ्न-ग्ध : विघ्न-विग्ध क्व-क्क : पक्व-पक्क .... घ्र-ग्घ . व्याघ्र-वग्ध त्क-क्क : उत्कण्ठा-उक्कंठा । द्घ-ग्घ : उद्घाटित-उग्घा डिअ र्क-क्क : अर्क-अक्क (सूर्य) घ-ग्घ : अर्घ-अग्घ (मल्य) ल्क-क्क : उल्का-उक्का च्य-च्च : अच्युत-अच्चुअ ख-क्खः : दु:ख-दुक्ख त्य-च्च : सत्य-सच्च क्ष-क्ख . लक्षण--लक्खण त्व-च्च : ज्ञात्वा-णच्चा (जानकर) ख्या-क्ख : व्याख्यान-वक्खाण थ्य-च्च : तथ्य-तच्च क्ष्य-क्ख : लक्ष्य-लक्ख .. च-च्च : अर्चना-अच्चणा क्ष-क्ख: उत्क्षिप्त-उक्खित्व क्ष-च्छ : दक्ष-दच्छ त्ख-क्ख : उत्खात-उक्खाय क्ष्म-च्छ : लक्ष्मी-लच्छी ७० : प्राकृत सीखें For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क-क्ख : निष्क्रमण-निक्खमण थ्य-च्छ : मिथ्या-मिच्छा... स्क-क्ख : प्रस्कन्दन-पक्खंदण प्स-च्छ : लिप्सा-लिच्छा... स्ख-क्ख : प्रस्खलित-पक्खलित ई-च्छ : मूळ-मुच्छा ग्न-ग्ग : नग्न-नग्ग श्च-च्छ : पश्चात्-पच्छा ग्म-ग्ग : युग्म-जुग्ग स्त-च्छ : विस्तीर्ण-विच्छिन्न ग्य-ग्ग : योग्य-जोग्ग ज्य-ज्ज : आज्य-अज्ज (घी) ग्र-ग्ग : अग्र-अग्ग : इज्या--इज्जा (दान) ज्र-ज्ज : वन-वज्ज न्य-ण : अन्य-अग्ण ज्व-ज्ज : प्रज्वलन-पज्जलण न्व-ण : अन्वर्थ-अण्णत्थ ज्ञ-ज्ज : सर्वज्ञ-सव्वज्ज म्न-ण : प्रद्युम्न-पज्जुण्ण द्य-ज्ज : अद्य-अज्ज ण-ण : वर्ण-वण्ण . ब्ज-ज्ज : अब्ज-अज्ज (कमल) क्ष्ण-ह : तीक्ष्ण-तिण्ह य्य-ज्ज : शय्या-सज्जा श्न-ह: प्रश्न-पण्ह र्य-ज्ज : आर्या-अज्जा ष्ण-ह : उष्ण-उण्ह. र्ज-ज्ज . वर्जन-वज्जण स्न-ह : स्नाति-प्रणाइ यं-ज्ज . वयं-वज्ज हण-ह : पूर्वाह ण-पुवण्ह ध्य-ज्झ : मध्य-मज्झ ह.न-ह : मध्याह न-मज्झण्ह ध्व-ज्झ : बुद्ध्वा-बुज्झा क्त-त्त : भुक्त-भुत्त . ह य-ज्झ : बाह्य-बज्झ त्न-त्त : यत्न-जत्त त्त-ट्ट : पत्तन-पट्टण (नगर त्म-त : आत्मा-अत्ता त-ट्ट : नर्तकी-नट्टई त्र-त्त : पात्र-पत्त ष्ट-ट्ठ : कष्ट-कट्ट त्व-त्त : सत्व-सत्त ष्ठ-ट्ठ : निष्ठुर-निठुर प्त-त्त : प्राप्त-पत्त र्थ-8 : अर्थ-अट्ठ त-त्त : वार्ता-बत्ता त-ड्डा : गर्ता-गड्डा क्थ-स्थ : सिक्थ-सित्थ (मोम) र्द-ड्ड : विच्छद-विच्छड्ड त्र-त्थ : यत्र-जत्थ छ्-च्छ : कृच्छ्-किच्छ (कष्टकर) र्थ-स्थ : अर्थ-अत्थ त्स-च्छ : वत्स-वच्छ स्त-स्थ : हस्त-हत्थ त्स्य-च्छ : मत्स्य-मच्छ स्थ-त्थ : प्रस्थ-पत्थ (दृढ़, यात्रा ढ्य-ड्ढ : आढ्य-अड्ढ (विपुल) के लिए जाने वाला) द्ध-ड्ढ : आढ्य-अड्ड (विपुल) द्ध-ड्ढ : ऋद्धि-रिड्ढि द्व-द्द : प्रद्वेष-पद्देस र्ध-ड्ढ : वर्धमान-वड्ढमाण ब्द-द्द : अब्द-अद्द (वर्ष) his his lo प्राकृत सीखें : ७१ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञ-ण : प्राज्ञ-पण (विज्ञान) द-ह. मन-महण ण्य-ण : पुण्य-पुण्ण ग्ध-द : दग्ध-दद्ध ण्व-ण : कण्व-कण्ण द्म-म : पदम-पोम्म (कमल) ध्व-द्ध : अध्वन्-अद्ध (मार्ग) क्ष्म-म्ह : पक्ष्मन्-पम्ह (बरोनी, ब्ध-द्ध : अब्धि -अद्धि (समुद्र) - महीन डोर) क्म-प्प : रुक्मिणी-रुप्पिणीष्म-म्ह : ग्रीष्म-गिम्ह त्प-प्प : उत्पल-उप्पल (कमल) स्म-म्ह . विस्मय-विम्हय त्म-प्प . : आत्मन्--अप्प हम-म्ह . ब्राम्हण बम्हण प्य-प्प : प्राप्य-पप्प ह य-यह : गुह य-गुव्ह प्र-प्प : वप्र-वप्प (टीला,खेत) र्य-ल्ल : पर्यस्त-पल्लत्थ प्ल-प्प : विप्लव--विप्पव ल-ल्ल : निर्लज्ज-निल्लज्ज प-प्प : अपंण-अप्पण ल्य-रुल : कल्याण-कल्लाण ल्प-प्प : अल्प-अप्प ल्व-ल्ल : पल्वल-पल्लल (छोटा त्फ-प्फ : उत्फुल्ल-उप्फुल्ल तालाब) ष्प-प्फ : पुष्प-पुप्फ हल-ल्ह : प्रहलाद-पल्हाअ फ-प्फ : निष्फल-निप्फल द्व-व्व : उद्वर्त्तन-उव्वट्टण (करस्प-प्फ : प्रस्पन्दन-पफ्फंदण वट, समृद्धि ) स्फ-टफ : प्रस्फोटित-पप्फोडिअर्व-व्व : उर्वी-उब्वी (पृथ्वी) ब-ब्ब : उद्बद्ध-उब्बद्ध व्य-व्व : काव्य-कव्व ब-ब्ब : निर्बल-निब्बल व-व्व : प्रव्रज्या-पव्वज्जा : अर्बुद-अब्बुअ (गुमड़ा) (संन्यास, भ्रमण) ब्र-ब्ब : अब्रह्म-अब्बंभ । र्ष-स्स : ईर्षा-इस्सा ग्भ्-ब्भ : प्राग्भार-पब्भार श्म-स्स : रश्मि-रस्सि (किरण) द्भ-भ : सद्भाव-सब्भाव श्य-स्स : लेश्या-लेस्सा भ्य-भ : अभ्यास-अब्भास श्र-स्स : ईश्वर-इस्सर भ्र-भ अभ्र-अब्भ (बादल) ष्य-स्स : शुष्य ति-मुस्सइ भ-भ : गर्भ-गब्भ प्व-स्स इष्वास-इस्सास हब-ब्भ : जिह वा-जिब्भा स्य-स्स . कस्य-कस्स न्म-म : जन्मन्-जम्म स्त्र-स्म : सहस्र-सहस्स म-म्म : कर्मन्-कम्म स्व-स्स : तेजस्विन्-तेअस्सि . ल्म-म्म : गुल्म-गुम्म (झुरमुट) ७१ सात सौखें For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डा. प्रेमसुमन जैन प्राकृत सीखें Serving Jin Shasan 068515 gyanmandir@kobatirth.org हीरा भैया प्रकाशन For Private and Personal Use Only