SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसी प्रकार की निम्न क्रियाएँ भी हैं: भुंजित्था, भुंजिंसु (भोजन किया); विहरित्था, विहरिसु (विहार किया); सेवित्था, सेविंसु (सेवन किया); गच्छित्था, गच्छिसु (गये); पुच्छित्था, पुच्छिसु (पूछा) आदि । - (२) कुछ ऐसे प्रयोग भी हैं जो संस्कृत तथा पालि में भी लगभग उसी प्रकार हैं; यथा कर---अकरिस्सं= मैंने किया (अकार्षम् सं.); कर--क-- अकासी=उसने किया (अकार्षीत्); बू-अबवी---वह बोला (अब्रवीत्); वच-अवोच=बोला (अवोचत्); बू--आह आहु बोला (आह); देक्ख-अदक्खू =देखा (अद्राक्षु); हो--अभू, अहू हुआ (अभूत, अभुवन्); वद्--वदासी, वयासी बोला (वदा+सी आर्ष प्रयोग)। वाक्य-प्रयोग गोयमो समणं महावीरं एवं क्यासी (गौतम ने श्रमण महावीर से ऐसा कहा), महावीरो एवं अब्बवी (महावीर ऐसा बोले), वड्ढमाणो जिणो अभू (वर्द्धमान जिन हुए), जिणा एवं कहिंसु (जिन ऐसा बोले), रायगिहे नयरे होत्था (राजगृह नगर था), सीसे विणयेणं आयरिये सेवित्था (शिष्य ने विनय से आचार्य की सेवा की), हेमंते महाबीरे रीइत्था (हेमन्त में महावीर ने विहार किया), गणहरा सुत्ताणि रइंसु (गणधरों ने सूत्र रचे), जिणेसरो अत्थं वागरित्था (जिनेश्वर ने अर्थ कहा), ते एवं अहिंसु (उन्होंने ऐसा कहा)। .. . प्राकृत सीखें: ४५ For Private and Personal Use Only
SR No.020567
Book TitlePrakrit Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain
PublisherHirabhaiya Prakashan
Publication Year1979
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy