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सम्बन्ध : संस्कृत-प्राकृत के
प्राकृत के संस्कृत भाषा के साथ दो प्रकार के सम्बन्ध हैं; भाषागत एव साहित्यगत । भाषा की दृष्टि से वैदिक भाषा और प्राकृत में अधिक समानताएँ हैं, जो उन्हें अपनी जननी लोकभाषा से प्राप्त हुई हैं । यथा
संस्कृत वैदिक प्राकृत १. संयुक्त व्यंजन में एक दुर्लभः दूलभ दूलहो
का लोप तथा ह्रस्व __ का दीर्घ स्वर २. ऋकार का उकार
वृतः
कृष्ट ३. बंजनान्त शब्दों का लोप पश्चात् पपचा पच्छा ४. द का ड होना दुर्दभः दूडम दण्ड-डंडा ५. ध काह होना प्रतिसंघाय प्रतिसंहाय बधिर-वहिरी ६. स्वरागम
स्वर्गः मुवर्गः सुवग्गो ७. प्रथमा में ओकार साचित सो चित् सोचित ८. चतुर्थी के स्थान पर पष्ठीविभक्ति तथा द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग वैदिक भाषा और प्राकृत में समान है।
इसी प्रकार संस्कृत में कुछ ऐसे शब्द भी पाये जाते हैं, जो जनभाषा से उसमें आये हैं, उन्हें प्राकृत का कहा जा सकता है । 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रयोग जिन शब्दों में होता है वे इसी कोटि के हैं । यथा--अणि, गुण्य, फण, कर्ण, गण, वेणु आदि ।
जिस प्रकार प्राकृत भाषा की कुछ समानताएँ वैदिकः भाषा तथा परवर्ती संस्कृत में पायी जाती हैं, उसी प्रकार प्राकृत भाषा में भी संस्कृत के बहुत से शब्दों को, एवं साहित्य की विशिष्ट शैली को अपनाया गया है। प्राकृत में प्रयक्त शब्दों को संस्कृत शब्दों के सादृश्य और पार्थक्य के आधार पर तीन भागों में बाँटा गया है--तत्सम, तद्भव, देश्य ।
जो शब्द संस्कृत से प्राकृत में ज्यों-के-त्यों ग्रहण कर लिये जाते हैं तथा जिनकी ध्वनियों में कुछ भी परिवर्तन नहीं होता है, वे तत्मम शब्द
प्राकृत सीखें : ६
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