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प्रकाशकीय
"तीर्थकर" मासिक का प्रकाशन मई १९७१ से आरम्भ हुआ और संयोगतः मनिश्री विद्यानन्दजी के वर्षायोग की स्थापना भी जुलाई १९७१ में इन्दौर में हुई; और इस तरह अनायास ही हीरा भैया प्रकाशन-जैसी अव्यवसायी संस्था ने सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और धार्मिक युगान्तर के एक अचीन्हे, किन्तु अपरिहार्य कार्यक्रम पर हस्ताक्षर कर दिये । "तीर्थंकर" अनवरत प्रकाशित होता रहा और कई मनस्वी लेखक इस क्रान्तिधारा से जुड़ते चले गये । प्रणम्य अग्रज श्री वीरेन्द्र कुमार जैन ने जैन पुराकथाओं को लेकर अधुनातन प्रयोग किये। ये कथाएँ “तीर्थकर" में छपी और सैकड़ों पाठकों ने इन्हें सराहा-पढ़ा। इनकी महत्ता और उपयोगिता ने भारतीय ज्ञानपीठ-जैसी संस्था को प्रभावित किया परिणामतः अप्रैल १९७४ में वहाँ से इन कथाओं का एक संकलन “एक और नीलांजना" शीर्षक से प्रकाशित हुआ । इसी तरह स्व. भाई श्री माणक चन्द कटारिया के सामाजिक क्रान्ति के उत्प्रेरक लेखों का एक संग्रह श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर ने “महावीर : जीवन में ?" नाम से दिसम्बर १९७५ में प्रकाशित किया । ये सारे लेख भी "तीर्थंकर" के अंकों में छपे और खूब पढ़े-सराहे गये । बोधकथाकार श्री नेमीचन्द पटोरिया की बोधकथाओं का संकलन स्वयं हीरा भैया प्रकाशन, इन्दौर ने छापा । ये कथाएँ न केवल "तीर्थंकर" में फपीं अपितु देश की गुजराती, मराठी, कन्नड़ और हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में पुनः प्रकाशित हुई । अब हम "तीर्थकर" में ही धारावाहिक रूप में एकाणित दॉ पेमममन जैन के मुबोध पाकत-पाठों के संकलन का प्रकाशन "प्राकृत सीखें" शीर्षक से कर रहे हैं, हमें विश्वास है मनिश्री विद्यानन्दजी के मंगल इन्दौर-प्रवेश पर उन्हें श्रद्धापूर्वक समर्पित दस अकिंचन अर्घ्य को प्राचीन जैन साहित्य के अध्ययन-मनन के लिए स्नेहपूर्वक अपनाया जाएगा। ज्ञातव्य है कि "प्राकृत सीखें" पूज्य मुनिश्री, जिनके रूप में कुन्दकुन्द ने ही मानो अवतरण लिया है, की प्रेरणा-प्रसादी है तथा अग्रज श्री बाबूलालजी पाटोदी की बहुमूल्य सहायता की एक मंगल आकृति है।
इन्दौर, ५ जुलाई १९७६
डॉ. नेमीचन्द जैन सम्पादक "तीर्थकर" मासिक
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