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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२) शिलालेखी प्राकृत : आर्ष प्राकृत के बाद शिलालेखों में प्रयुक्त प्राकृत भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यह लिखित रूप में प्राकृत का सबसे पुराना साहित्य है । अशोक के शिलालेखों में इसके रूप सुरक्षित हैं । शिलालेखी प्राकृत का काल ई. पू. ३०० से ४०० ई. तक है । इन सात सौ वर्षों में लगभग हजार शिलालेख प्राकृत में लिखे गये हैं । खारबेल का हाथीगुंफा शिलालेख तथा उदयगिरि और खण्डगिरि के पुरालेख अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । (३) निया प्राकृत : निया प्रदेश (चीनी तुर्किस्तान) से प्राप्त लेखों की भाषा को 'निया प्राकृत' कहा गया है। इस प्राकृत का तोखारी भाषा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । (४) धम्मपद की प्राकृत : पालि धम्मपद की तरह प्राकृत में भी लिखा गया एक धम्मपद मिला है। इसकी लिपि खरोष्ठी है । इसकी प्राकृत पश्चिमोत्तर प्रदेश की बोलियों से सम्बन्ध रखती है । (५) अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत: अश्वघोष के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत जैन सूत्रों की प्राकृत से भिन्न है । यह भिन्नता प्राकृत के विकास सूचित करती है । इस समय तक मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी नाम से प्राकृत के भेद हो चुके थे । इस प्रकार प्रथम युगीन प्राकृत भाषा इन आठ सौ वर्षों में प्रयोग की दृष्टि से विभिन्न रूप धारण कर चुकी थी । ईसा की द्वितीय से छठी शताब्दी तक जिस प्राकृत भाषा में साहित्य लिखा गया है, उसे मध्ययुगीन प्राकृत कहा जाता है । इस युग की प्राकृत को हम साहित्यिक प्राकृत भी कह सकते हैं; किन्तु प्रयोग - भिन्नता की दृष्टि से इस समय तक प्राकृत के स्वरूप में क्रमशः परिवर्तन हो गया था, अतः प्राकृत के वैयाकरणों ने प्राकृत के ये पाँच भेद निरूपित किये हैं---अर्धमागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी एवं पैशाची । इनके स्वरूप एवं प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं: For Private and Personal Use Only प्राकृत सीखें:
SR No.020567
Book TitlePrakrit Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain
PublisherHirabhaiya Prakashan
Publication Year1979
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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