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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुपचीनगर स्वरान्त एवं व्यञ्जनान्त पुल्लिग शब्द ऋकारान्त एवं व्यंजनान्त शब्द प्राकृत में भिन्न रूपों में प्रयुक्त होते हैं । कतिपय ऐसे शब्द यहाँ द्रष्टव्य हैं कर्तृ--कत्तार, भर्तृ--भत्तार, भ्रातृ-भायर, पितृ-पिउ, पितर, दातृ-दायार आदि। आत्मन्--अप्पाण (अत्ताण, अप्प, अत्त, आदा) आदि । राजन्-राय, मुग्ध-मुद्ध, जन्मन्-जम्मो, चन्द्रमस्--- चन्दमो, कर्मन्--कम्म, अर्हन्–अरहो, भगवत्--भगवन्तो आदि । इनके रूप प्राय: अकारान्त शब्दों जैसे चलते हैं। कुछ विभक्तियों में भिन्न प्रयोग भी देखने को मिलते हैं। राजन् (राय) और आत्मन् (अप्पाण) शब्द के रूप द्रष्टव्य हैं ___ राय (रायम् । एकवचन राया रायणो, राइणो रायं, राइणं राइणा, राएण, रण्णा राएहिं, राईहिं रणो, राइणो, रायस्स राईण, रायाणं रण्णो, राइणो, रायत्तो रायाहिता, रायासुतो, राइहितो रणो, राइणो, रायस्स राईण, रायाणं राय म्मि, राइम्मि राईसु, राएसु राय, राया राया, राइणो अप्पाण (आत्मन्) एकवचन बहुवचन अप्पाणो __ अप्पाणो अप्पाणं अप्पणा अपाणेहि अप्पाणस्स, अप्पणो अप्पाणाणं अप्पाणत्तो, अप्पाणाओ अप्पाणाहितो, अप्पाणासुंतो AAAAAAAAAA प्राकृत सीखें : २५ For Private and Personal Use Only
SR No.020567
Book TitlePrakrit Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsuman Jain
PublisherHirabhaiya Prakashan
Publication Year1979
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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