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न केवल अपभ्रंश अपितु देश की आधुनिक प्रादेशिक भाषाओं पर भी प्राकृत का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। उसके अधिकांश शब्द अपभ्रंशयुग से गुजरते हुए किंचित् ध्वनिगत परिवतनों के साथ आज की भाषाओं में व्यवहृत हैं; उदाहरणार्थ
प्रा. ओइल्ल (ओढ़नी)-गुजराती (ओलयु); प्रा. उंडा (गहरा)गुज. (ऊंडा); प्रा. जीय (देखना)-गुज. (जोवू) ; प्रा. बँबाओ (चिल्लाना)-गुज. (बूम मारवू); प्रा. लीट (लकीर)-गुज. (लीटी); प्रा. धाव (तृप्ति)-राजस्थानी (धापणो); प्रा. अग्गि (अग्नि)उड़िया (अगी); प्रा. णई (नदी)-उड़िया (नई); प्रा. सही (सखी)उड़िया (सही); प्रा. कच्चहर (कृत्यगृह, कचहरी)-मैथिली (कचहरी); प्रा. मज्जुर (मयूर, मोर)-मैथिली (मजूर); प्रा. बेडिला (जहाज)भोजपुरी (बेड़ा); प्रा. महिलारू (पत्नी)-भोजपुरी (मेहरारू); प्रा. चिल्लिरी (जं)-बंदेलखण्डी (चिलरा); प्रा. छेलि (बकरी)-बुंदेलखण्डी (छरि);प्रा. उंदर (चूहा)-मराठी (उंदीर); प्रा. तूलि (सूती चादर)मराठी (तुली, तुले); प्रा. कुरर (भेड़)-कन्नड़ (कुरी); प्रा. पुल्लि (बाघ)-कन्नड़ (हुलि); प्रा. अक्क (माँ)-तमिल (अक्का); प्रा. चवेड़ (ताली बजाना)-तेलुगु (चप्पट)। ___ उक्त शब्दों के अतिरिक्त प्राकृत के ऐसे हजारों शब्द हिन्दी में प्रयुक्त हैं, जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत से ज्ञात नहीं है; अतः प्राकृत एवं अपभ्रंश का अध्ययन न केवल प्राचीन भारतीय संस्कृति के परिज्ञान के लिए आवश्यक है अपितु आधुनिक भारतीय साहित्य की बहमल्य सांस्कृतिक धरोहर का परिपूर्ण परिचय, अध्ययन, अनुसंधान ही तब संभव है जब प्राचीन भारतीय भाषाओं एवं मध्यकालीन भाषाओं का एक व्यापक तुलनात्मक विश्लेषण किया जाए ।
प्राकृत सीखें: १३
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