Book Title: Prakrit Sikhe
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Hirabhaiya Prakashan

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Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकृत के प्राचीन वाडमय एवं जैनदर्शन के आधारभूत सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त कर सकेंगे और हिन्दी भाषा के विकास की एक कड़ी भी सहज ही उनके हाथ लग सकेगी। पाठमाला में उदाहरण एवं अभ्यासवाक्य प्रायः आगमग्रन्थों से लिये गये हैं; तथा प्राकृत भाषा के उन सभी प्रयोगों को संजोने का प्रयास किया गया है, जो प्राकृत-साहित्य के रसास्वादन में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं । प्रस्तुत पाठों में कुछ चुने हुए शब्द और धातुरूप ही प्रयुक्त हैं, ताकि पाठक को प्राकृत का प्रारम्भिक ज्ञान दिया जा सके और विशेष तलस्पर्शी अध्ययन के लिए उसमें ज्वलन्त अभिरुचि जगायी जा सके। स्वभावतः विशिष्ट ज्ञान के लिए विशिष्ट ग्रन्थों का अध्ययन जरूरी है। प्राकृत शब्दों की ध्वनि-सम्बन्धी विशेषताएँ प्राकृत व्याकरण का द्वार खटखटाने से पहले प्राकृत के कतिपय शब्दरूपों को जान लेना आवश्यक है । एक तथ्प स्पष्ट है कि जब किसी साहित्य में बोलचाल की भाषा प्रयुक्त होती है तब उसमें एक ही शब्द और धातु के नाना रूप प्रचलन में आ जाते हैं। यही कारण है कि प्राकृत में प्राय: शब्द और धातुओं के कई विकल्प देखे जाते हैं तथा संस्कृत में जिन स्वरों एवं व्यंजनों का प्रयोग होता है, प्राकृत में उन्हीं में अनेक परिवर्तन देखने को मिलते हैं । इसे शब्दों का प्राकृतीकरण कहा जा सकता है। स्वर-परिवर्तन सामान्यतः प्राकृत में स्वर-परिवर्तन की नीचे दी गयी प्रवृत्तियाँ मिलती हैं-- १. ह्रस्व स्वरों का दीर्घोकरण : अश्वः>आसो (घोड़ा); वर्ष>वासो; कर्तव्यम् >काअव्वं; सिंहः>सीहो । २. दीर्घ स्वरों का ह्रस्वीकरण : मुनीन्द्रः>मुनिन्दो; नरेन्द्र>नरिन्दो; तैलम्>तेल्लं; यौवनम्>जोव्वणं । ३. स्वरों का लोप : अपि>पि; तथापि>तह वि; इति> __ ति; इव>व, व्व; असि>सि... For Private and Personal Use Only

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