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(ग) अनुनासिक और अनुस्वार के साथ भी व्यंजनों के द्वित्व होते
हैं; यथा--चन्द्रः>चंदो, जन्म>जम्मो, कन्या>कण्णा,
मन्ये>मण्णे । (घ) अन्तःस्थ वर्गों में भी द्वित्व होते हैं : यथा---मूर्खः>मुक्खो,
अर्थ:> अट्ठो, अर्धम् >अड्ढे, आर्य->अज्ज । (ङ) ऊष्म व्यंजनों के द्वित्व होते हैं; यथा-पुष्करं>पोक्खर;
दृष्टि:>दिट्ठी, पुष्पं>पुप्फं, प्रश्नः>पण्हो मनुष्यः>
मणुस्सो । ३. स्वरभक्ति (शब्द के मध्य में स्वर का आना) आदि द्वारा व्यंजन-परिवर्तन; यथा--रत्नरयणं, स्नेहः>सणेहो, श्री. सिरी, स्याद्>सिया, पद्म>पउम । अन्य प्राकृत शब्दों का ज्ञान आगामी पाठों में प्रयुक्त' शब्दों से यथाप्रसंग होगा।
प्राकृत वाक्य-रचना के प्रमुख नियम । प्राकृत में शब्द एवं धातु रूपों को जानने के पूर्व यह समझ लेना भी आवश्यक है कि वाक्य-संरचना में किन सामान्य नियमों का पालन करना होता है। कर्ता, कर्म, क्रिया आदि का प्रयोग प्रायः वाक्यों में निम्न प्रमुख नियमों के अनुसार होता है
१. क्रिया का वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार होता है, जैसे--रामो पढइ । देवा गच्छन्ति । अहं नमामि ।
२. कर्ता में प्रथमा और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है; जैसेमोहणो गामं गच्छइ । सो पोत्थयं पढइ ।
३. क्रिया की सिद्धि में जो सहायक हो, उसे करण कहते हैं । कारण में तृतीया विभक्ति होती है; जैसे-सच्चेण जयइ। डंडेन चलइ । पुत्तेण सह गच्छद। सुहेण जीवह । कण्णण बहिरो (कान से बहिरा) आदि ।
४. किसी प्रयोजन तथा देने आदि के अर्थ में चतुर्थी विभक्ति होती है; जैसे-मोक्खस्स तवं करइ । बालकस्स धणं ददाति । अच्छे लगने अर्थवाली क्रियाओं तथा नमस्कार आदि में भी चतुर्थी का प्रयोग होता है।
प्राकृत सीखें : १८
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