Book Title: Prakrit Sikhe
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Hirabhaiya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (आकृति), संतावणं (सन्ताप), सच्चं (सत्य), सत्तं (सत्त्व), सद्दहाणं (श्रद्धान), सागयं (स्वागत), सिवं (मंगल, शिव), सुन्देरं (सौन्दर्य), सुकयं (पुण्य), सुत्तं (सूत्र), सुहं (सुख), रिणं (ऋण, कर्ज), कवडं (कपट), कुडुवं (कुटुम्ब), गेहं (घर) इनके रूप नपुंसकलिंग शब्द की तरह चलेंगे। प्राकृत में कुछ इकारान्त एवं उकारान्त नपुंसकलिंग शब्द भी प्रयुक्त होते हैं; यथा--दहि (दधि, दही), वारि (जल), सुरहि (सुरभि), महु (मधु), अंसु (अश्रु) आदि । इनके रूप प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति में नपं. के चित्रों से यक्त शेष विभक्तियों में प्रायः पल्लिग मनि, साह जैसे शब्दों की भांति होते हैं । दाम (दामन्), नाम (नामन्), पेम्म (प्रेमन्), सेय (श्रेयस्), भगवन्त (भगवत्), आउस (आयुष्) जैसे नपुंसकलिंग शब्द भी प्राकृत में प्रयुक्त हैं। धातु-कोश चिणंति--चुनता है। वरसेइ-बरसता है । छिदइ-काटता है । रएइ--रचता है। मुंचइ--छोड़ता है। नयंसति--नमस्कार करता है। चोरेइ---चुराता है । सोहइ----शोभित होता है। जोअइ-~-चमकता है। चिट्ठइ-रहता है। वाक्य-प्रयोग नक्खत्ताणं मिअंको जोअइ--नक्षत्रों में चन्द्रमा चमकता है। पाइयकव्वं हिययं सुहावइ--प्राकृतकाव्य हृदय को अच्छा लगता है। सो पावकम्म ण करेइ--वह पाप कर्म नहीं करता है । साहणं दंसणं दुरियं पणासेइ--साधुओं का दर्शन पाप नष्ट करता है । बह्मचेरं उत्तम अत्थि --ब्रह्मचर्य उत्तम है । समोसरणम्मि सव्वे जीवा आसंति---समवसरण में सभी जीव बैठते हैं । सिद्धालयम्मि सिद्धा णिवसन्ति--सिद्धालय में सिद्ध रहते हैं । तस्स संठाणं सुन्देरं अत्थि---उसकी आकृति सुन्दर है। वारिम्मि मच्छा संति---जल में मछलियाँ हैं । अहं पावं निदेमि--मैं पाप की प्राकृत सीखें : ३६ For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74