Book Title: Prakrit Sikhe
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Hirabhaiya Prakashan

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Page 64
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अव्ययीभाव जिसमें पूर्वपद के अर्थ की प्रधानता हो तथा अव्ययों के साथ जिसका प्रयोग हो वह अव्ययीभाव समास है; यथा--गुरुणी समीवं उवगुरु ( गुरु के पास ) ; जिणस्स पच्छा = अणुजिणं ( जिन के पीछे ) ; दिणदिणं पइ = पइदिणं ( प्रतिदिन ) । तत्पुरुष = जिसमें उत्तरपद के अर्थ की प्रधानता होती है तथा पूर्वपद से द्वितीया विभक्ति से लेकर सप्तमी विभक्ति तक का लोप होता है उसे तत्पुरुष समास कहते हैं । यथा -सुहंपत्तोः - सुहपत्तो ( सुख को प्राप्त), गुणेहिं संपण्णो = गुणसंपण्णो ( गुण से युक्त ), बहुजणस्स हितो: बहुजणहितो ( सब जनों के लिए हित ), संसराओ भीओ = संसार भीओ (संसार से भयभीत ), देवस्स मंदिरं – देवमंदिरं ( देव का मंदिर ), कलासु कुसलो - कलाकुसलो ( कलाओं में कुशल ) । = कर्मधारय = - विशेषण और विशेष्य के समास कर्मधारय कहलाते हैं; यथामहन्तो अ सो वीरो महावीरो, चंदो व्व मुहं चंदमुहं, संजमो एव धणं संजमधणं; इत्यादि । द्विगु समास प्रथम पद यदि संख्या सूचक हो तो उसे द्विगु समास कहते हैं; यथा - तिण्हं लोगाणं समूहो - तिलोगं ( तीन लोक ), चउण्हं कसायाणं समूहो : : चउक्कसाय ( चार कषाय), नवण्हं तत्ताणं समाहारो= नवतत्तं (नौ तत्त्व ) । द्वन्द्व समास दो या दो से अधिक संज्ञाएँ जब एक साथ जोड़े के रूप में 'प्रयुक्त हों तो उसे द्वन्द्व समास कहते हैं; यथा- पुण्णं य पावं य= पुष्णपावाई, सुहं य दुक्खं य= सुहदुक्खाई, नाणं य दंसणं य चरितं यनाणदंसणचरितं । For Private and Personal Use Only प्राकृत सीखें: ६३

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