Book Title: Prakrit Sikhe
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Hirabhaiya Prakashan

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४. सम्प्रसारण (क्रमशः य् व् र ल् का इ उ ऋ लृ में परिवर्तन) : व्यजनम् > विअणं, त्वरितम् > तुरिअं कथयति > ; लवणम् > लोणं । कहेइ; ५. ऋ, ऐ एवं औ के परिवर्तन : (अ) ॠ सामान्यतः अ, उ, इ तथा रि में बदल जाता है; यथा -- मृगः > मओ, ऋषि > इसी प्रवृत्तिः >पउत्ती, ऋद्धिः> रिद्धी । , ( आ ) ऐ > ए एवं अइ में बदलता है; यथा - शैलः > सेलो, दैत्यः>दइच्चो । (इ) औ> ओ, उ एवं अउ में बदल जाता है; यथा-कौमुदी - कोमुई, दौवाRe: > दुवारिओ, पौरः>पउरो । सरल व्यंजन- परिवर्तन संस्कृत में प्राकृत के अनेक शब्द परिवर्तित रूप में मिलते हैं । वस्तुतः बोलचाल में प्रयुक्त अनेक व्यंजनों को बदल कर संस्कृत में उनमें एकरूपता लायी गयी है, जब कि प्राकृत में ये शब्द अपने मूलरूप में प्रयुक्त होते रहे हैं । प्राकृत के वैयाकरणों ने संस्कृत को आधार मानकर ऐसे अनेक संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये हैं तथा उनके परिवर्तन के नियम बताये हैं; जैसे १. सामान्यतः शब्दों के आरंभ में आने वाले न, य, श और ष इस प्रकार परिवर्तित हुए हैं - नरः > णरो, यशः > जसो, शब्दः > सहो, श्यामा > सामा, षड्जः> सज्जो । २. शब्दों के बीच में आने वाले व्यंजनों में ढ, ण, म, र, ल, स तथा ह अपरिवर्तित रहे हैं; शेष व्यंजन इस प्रकार बदल जाते हैं-क, ग, च, ज, द, त, प, य, व लोप: नकुलं >णउलं, नगरं > णअरं, वचनं> वअणं, गजः >गओ, कृतं > कअं, यदि > जइ, विपुल > विउल, नयनं > णअणं, जीवः > जीओ । प्राकृत सीखें : १६ For Private and Personal Use Only

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