Book Title: Prakrit Sikhe Author(s): Premsuman Jain Publisher: Hirabhaiya Prakashan View full book textPage 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहलाते हैं; यथा-नीर, धीर, धूलि, कण्ठ, कवि, तिमिर, संसार, रस' जल, तीर, कल, आगम, चित्त, इच्छा आदि । संस्कृत से वर्णलोप, वर्णागम, वर्णपरिवर्तन एवं वर्णविकार द्वारा जो शब्द उत्पन्न हुए हैं, वे तद्भव कहलाते हैं; यथा--अग्ग<अन, इट्ठ< इष्ट, गअ<गज, कसण<कृष्ण, जक्ख <यक्ष, फंस<स्पर्श, भरिआ< भार्या, मेह< मेघ आदि । जिन प्राकृत शब्दों की व्युत्पत्ति नहीं हो सकती तथा जिन शब्दों का अर्थ रूढ़िगत हो, ऐसे शब्दों को देश्य या देशी कहा गया है, जो जनसाधारण की बोलचाल की भाषा में सम्मिलित होते रहते हैं--यथा-अगय (दैत्य), दूराव (हस्ती), एलविल (धनाढ्य), जच्च (पुरुष), तोमरी (लता), घयण (गृह) आदि । ___ अतः प्राकृत भाषा का अध्ययन करते समय शब्दों के इस विभाजन को ध्यान में रखना आवश्यक है । इससे सन्दर्भगत अर्थ को ठीक से समझा जा सकता है । . 'प्राकृत' का अर्थ विद्वानों का एक वर्ग यह मानता है कि प्राकृत संस्कृत का ही विकृत रूप है । उनका यह मत वैयाकरणों के इस निर्देश पर आधारित है कि संस्कृत प्रकृति है, उससे उत्पन्न होने वाली प्राकृत है-'प्रकृतिः संस्कृतम, तत्रभवं प्राकृतम् उच्यते'। वैयाकरणों के अतिरिक्त कुछ आलंकारिकों ने भी यह मत प्रकट किया है। सबने 'प्रकृति' का अर्थ संस्कृत भाषा करके भ्रान्ति की है, जबकि प्राकृत को 'प्रकृति' शब्द से उत्पन्न मानना और उसे संस्कृत से जोड़ना प्रामाणिक नहीं है और न ही भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अर्थसंगत है, क्योंकि किसी भी भाषा के बल पर कोई स्वन्तत्र भाषा जन्म नहीं लेती; अतः प्राकृत भाषा की उत्पत्ति एवं व्याख्या के सम्बन्ध में विद्वानों ने वैज्ञानिक ढंग से स्वतन्त्र विचार किया है। प्राचीन विद्वान् नमिसाधु ने 'प्राकृत' शब्द की व्याख्या को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार 'प्राकृत' शब्द का अर्थ है व्याकरण आदि संस्कारों से प्राकृत सीखें : ७ For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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