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उन्नति पथ पर अग्नसर होना है, सभ्य ससार की दृष्टि में उसे अपने आप को ऊंचा उठाना है और स्वय उस ऊंचाई के उपयुक्त बनना है तो उसे अपने साहित्य को प्रगतिशील एव समुन्नत बनाना ही होगा, अपने प्राचीन साहित्य रत्नो को ढग से ससार के सामने प्रस्तुत करके उनका तथा उनकी जननी जैन संस्कृति का महत्त्व प्रदर्शित करना और मूल्य अकवाना होगा, लोक हितार्थ एव ज्ञान वर्द्धन के लिए उसका उपयुक्त सदुपयोग कराना होगा, उसका अधिकाधिक प्रचार एव प्रसार करना होगा, समाज के स्त्री पुरुष आंबालवृद्ध में सर्व व्यापी पठनाभिरुचि-पुस्तक आदि क्रय करके पढने और अध्ययन करने की प्रवृत्ति जागृत करनी होगी, जो व्यक्ति तनिक भी प्रतिभा सम्पन्न एव साहित्यिक अभिरुचि वाला हो उसे सर्व प्रकार प्रोत्साहन, जिसमे समुचित पुरस्कार पारिश्रमिक अत्यावश्यक है, प्रदान करके उस व्यक्ति मे जो सर्वोत्तम तथ्य है उसे साहित्य के रूप मे ससार को प्रतिदान कराने की सुचारु योजना करनी होगी
और साहित्यिक अनुसधान, निर्माण एव प्रकाशन कती सस्थाओ, परीक्षा बोर्डी, विद्या केन्द्रों, सामयिक पत्र पत्रिकामो तथा व्यक्तिगत विद्वानो और लेखकों का केन्द्रीकरण नही तो कम से कम एक सूत्रीकरण करके उन्हे सुव्यवस्थित रूप से सुसंगठित करना होगा, साहित्यगत अथवा सस्कृतिजन्य विविध विषयो का सुचारु विभाजन करके विषय विशेषो मे विशेषज्ञता प्राप्ति के प्रयत्नो को प्रोत्साहन देना भी वाञ्छनीय होगा। यह सब किये बिना इस द्रुत वेग से प्रगतिशील सघर्ष प्रधान युग मे जबकि न किसी व्यक्ति को अनावश्यक अवकाश है, न व्यर्थ के शौक पूरा करने की रुचि और साधन है और न धार्मिक श्रद्धा जीवन का कोई वास्तविक महत्वपूर्ण अग रहती जाती है, प्रत्युत परिगुणित होती हुई मानवी इच्छाए , वासनाए और आवश्यकताए तथा जीविकोपार्जन की जटिल समस्या एव स्वार्थ परता प्रत्येक व्यक्ति का गला बेतरह दबाये हुए है, किसी समाज और उस समाज की संस्कृति के लिए, चाहे वह कितनी भी महत्व पूर्ण क्यो न हो, उन्नति पथ पर अग्रसर होते रहना तो दूर की बात है, जीवित रहना भी अत्यन्त कठिन है।