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. ( २६ ) प्रथम एक-एक मुद्रणालय स्थापित हुआ। भारतीय मुद्रणकला के इतिहास में सीरामपुर (बगाल) के मुद्रणालय, मुद्रणकला विशारद सर चालर्स विल्किन्स, । उनके सहयोगी शिष्य पचानन और ग्रहस्थ मिशनरी डा. विलियम कैरी के नाम विशेष उल्लेखनीय है । उक्त सीरामपुर छापेखाने से १६ वी शताब्दी के पूर्वार्ध मे विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं मे बाइबिल के अनुवाद धडाधड प्रकाशित हुए। धीरे-धीरे भारतीय पुस्तके भी देशी भाषाओं मे छपने लगी । नागरी लिपि की सर्व प्रथम मुद्रित पुस्तकें कुरियर प्रेस, बम्बई द्वारा प्रकाशित 'विदुर नीति (१८२३ ई०) और 'सिंहासन बत्तीसी' (१८२४ ई०) हैं, किन्तु इन दोनो की भाषा मराठी है। हिन्दी भाषा और नागरी लिपि की सर्व प्रथम पुस्तक इग्लैंड मे छपी थी और १६ वी शताब्दी के मध्य से वे भारतवर्ष मे भी छपने लगी।
जन प्रकाशन का इतिहास-जैन साहित्य मे हिन्दी भाषा और नागरी लिपि की सर्व प्रथम पुस्तक प्रसिद्ध दिगम्बर विद्वान प० बनारसीदास (१७ वीं शताब्दी) कृत 'साधु बन्दना' थी जो सन् १८५० मे आगरा नगर मे छपी थी। अतएव जैन पुस्तक साहित्य का अथवा उसके मुद्रण व प्रकाशन का प्रारम्भ सन् १८५० ई० से ही मानना उचित है ।
वैसे तो, जहाँ तक पाश्चात्य जगत का प्रश्न है, यूरोपीय विद्वानो और प्राच्यविदो ने तो १६ शताब्दी के प्रारभ से जैन धर्म और सस्कृति मे दिलचस्पी लेनी प्रारभ करदी थी। सन १७६६ ई० मे लेफ्टिनेन्ट विल्फ्रेड का 'त्रिलोक दर्पण' नामक जैन अथ की एक प्रति हाथ लग गई। उनके स्वय के कथनानुसार ब्राह्मण पडितो ने साम्प्रदायिक विद्वोष के कारण उस पर कुछ भी प्रकाश डालने से साफ इन्कार कर दिया। x अतएव विल्फ्रेड साहब स्वय ही उस प्रन्थ पर से जैनो के सम्बन्ध में जो कुछ जान सके वह उन्होने 'एशियाटिक रिसर्चेज' भाग तीन पृष्ठ १९२ पर प्रकाशित कर दिया । विदेशी भ्रमणार्थियों
x विलफ्रेड पान दी एन्टीपेथी आफ दी ब्रह्मिन्स टू दी जेन्स-राशियाटिक रिसचेंज भा० ३ पृ०५१.